Sunday, November 18, 2012

निंदक नियरे राखिये



कबीर ने कहा है, निंदक नियरेराखिए..।
इसका अर्थ है कि हमें निंदक को अपने निकट रखना चाहिए।
लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं कहा है कि हम दूसरों की निंदा में ही अपना समय व्यतीत करें।
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सच तो यह है कि हम स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ साबित करने के लिए उनकी निंदा करते हैं।
वास्तव में, मानव मन निर्मल और पवित्र होता है।
आप अपने मन में जैसी भावनाओं का संचार करते हैं,
दूसरों के सम्मुख वैसे ही विचार प्रकट करते हैं।
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फिर मानव मन अपने संकल्प सागर में निंदा के कंकड-पत्थर की सृष्टि क्यों करता है?
हो सकता है कि इसके पीछे हमारा दूसरे व्यक्ति को सुधारने का विचार काम करता हो!
पर क्या निंदा करने का उद्देश्य उस व्यक्ति की भूलें बताकर उसे सन्मार्ग पर लाना होता है?
यदि यह सच है, तो पीठ पीछे दोष-चर्चा से कोई लाभ सिद्ध नहीं हो सकता है।
प्रत्यक्ष में संबंधित व्यक्ति की भूलों की ओर संकेत करने से ही यह संभव हो सकता है।
वास्तव में, निंदा का उद्देश्य सहज प्रयत्न से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना होता है।
अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना मानवीय अहम की दुर्बलता है।
जब हम किसी व्यक्ति की निंदा करते हैं,
तो उसके पीछे यह भाव छिपा होता है कि
दूसरे व्यक्ति कितने अधूरे हैं और बुराइयों के पुतले हैं,
लेकिन मैं जिन बुराइयों की ओर संकेत कर रहा हूं, इनसे अछूता हूं।
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जिस व्यक्ति से हम किसी और व्यक्ति की निंदा करते हैं,
तो उस पर इसका विपरीत प्रभाव पडता है।
निंदा सुनने वाला व्यक्ति निंदा करने वाले को ऐसा कमजोर व्यक्ति मान लेता है,
जो स्वयं अधूरा है।
दूसरे व्यक्ति पर निंदा का कीचड फेंककर वह स्वयं उजला बनने की कोशिश कर रहा है।
निंदा करने वाले व्यक्ति का यह तर्क हो सकता है कि
वह बुराइयां बताकर संबंधित व्यक्ति को आगाह कर रहा है।
यानी वह सामने वाले व्यक्ति को अपना मित्र मान रहा है।
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इसके ठीक उलट नीतिकारकहते हैं कि सच्चा मित्र वही है,
जो मित्र की बुराइयों को छिपा लेता है और
केवल गुणों को ही प्रकट करता है।
यहां पर यह प्रश्न उठ सकता है कि
यदि हमारा प्रिय व्यक्ति, अपने आचरण में परिवर्तन नहीं ला पा रहा है,
तब उसके अनुचित व्यवहार को समाप्त कैसे किया जाए?
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नीतिकारकहते हैं कि ऐसी स्थिति में दो उपाय बचते हैं---
उसके अवगुणों पर कोई ध्यान न दिया जाए या कोई टीका-टिप्पणी न की जाए।
दूसरा उपाय यह है कि संबंधित व्यक्ति से प्रत्यक्ष रूप से उसके अवगुणों की चर्चा की जाए और
उसे समाप्त करने का निवेदन किया जाए।
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वहीं दूसरी ओर, निंदा का प्रयोग न केवल निष्फल, बल्कि प्रत्येक दशा में आत्मघाती ही है।
निंदा करने से मनुष्यों को स्वयं की क्षति होती है।
वह न केवल हीन भावना का शिकार होता है,
बल्कि उसका आत्मविश्वास भी प्रभावित होता है।
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जब हम किसी व्यक्ति की निंदा करते हैं,
तो इसका मतलब यह है कि हमारी स्वयं की तलाश समाप्त हो चुकी है,
इसीलिए हम बाहर की ओर देखने लगे हैं।
इस प्रक्रिया में हम दूसरे व्यक्ति की बुराई करने लगते हैं।
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यदि हम दूसरों की निंदा करने के बजाय स्वयं के भीतर में झांके,
यानी आत्मा की आवाज सुनें,
तो यह हमारे लिए बेहतर होगा।
आत्मा आनंद का अनंत भंडार है।
आनंद के इस स्रोत पर नियंत्रण करना है,
तो निंदा के हलाहल को फेंकना ही होगा।
सचमुच यह एक ऐसी मदिरा है,
जिसे छोडने के लिए तीव्र संकल्प और सजगता की आवश्यकता होती है।

पर-निंदा / मनोबल बढाओ


पर-निंदा
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परनिंदा में प्रारंभ में काफी आनंद मिलता है,
लेकिन बाद में निंदा करने से मन में अशांति व्याप्त होती है और
हम हमारा जीवन दुःखों से भर लेते हैं।
प्रत्येक मनुष्य का अपना अलग दृष्टिकोण एवं स्वभाव होता है।
दूसरों के विषय में कोई अपनी कुछ भी धारणा बना सकता है।
हर मनुष्य का अपनी जीभ पर अधिकार है और
निंदा करने से किसी को रोकना संभव नहीं है।

लोग अलग-अलग कारणों से निंदा रस का पान करते हैं।
कुछ सिर्फ अपना समय काटने के लिए किसी की निंदा में लगे रहते हैं.....
तो कुछ खुद को किसी से बेहतर साबित करने के लिए निंदा को अपना नित्य का नियम बना लेते हैं।
निंदकों को संतुष्ट करना संभव नहीं है।

जिनका स्वभाव है निंदा करना,
वे किसी भी परिस्थिति में निंदा प्रवृत्ति का त्याग नहीं कर सकते हैं।
इसलिए समझदार इंसान वही है,
जो लोगों द्वारा की गई विपरीत टिप्पणियों की उपेक्षा कर अपने काम में तल्लीन रहता है।
किस-किस के मुंह पर अंकुश लगाया जाए,
कितनों का समाधान किया जाए!

प्रतिवाद में व्यर्थ समय गंवाने से बेहतर है --
अपने मनोबल को और भी अधिक बढ़ाकर जीवन में प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते रहें।
ऐसा करने से एक दिन आपकी स्थिति काफी मजबूत हो जाएगी और
आपके निंदकों को सिवाय निराशा के कुछ भी हाथ नहीं लगेगा।

संसार में प्रत्येक जीव की रचना ईश्वर ने किसी उद्देश्य से की है।
हमें ईश्वर की किसी भी रचना का मखौल उड़ाने का अधिकार नहीं है।
इसलिए किसी की निंदा करना साक्षात परमात्मा की निंदा करने के समान है।
किसी की आलोचना से आप खुद के अहंकार को कुछ समय के लिए तो संतुष्ट कर सकते हैं
किन्तु किसी की काबिलियत, नेकी, अच्छाई और सच्चाई की संपदा को नष्ट नहीं कर सकते।
जो सूर्य की तरह प्रखर है,
उस पर निंदा के कितने ही काले बादल छा जाएं
किन्तु उसकी प्रखरता, तेजस्विता और ऊष्णता में कमी नहीं आ सकती।
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कुछ लोगों का प्रिय शगल है - दूसरों की निंदा करना। 
सदैव दूसरों में दोष ढूंढते रहना मानवीय स्वभाव का एक बड़ा अवगुण है। 
दूसरों में दोष निकालना और 
खुद को श्रेष्ठ बताना कुछ लोगों का स्वभाव होता है। 
इस तरह के लोग हमें कहीं भी आसानी से मिल जाएंगे।
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स्वयं को हानि पहंचाने वाले कृत्य करना स्व-पराजय है। 
हम सामान्यतः ईष्र्या के कारण दूसरों की बुराई कर स्वयं को हराते है। 
किसी की बुराई कर अपना समय खराब न करें।

पर-निंदा किसी भी व्यक्त्ति के लिये स्वयं के लिये हानिकारक है
पर तब भी समाज की सच्चाई को देखते हुये
एक विद्वान ने लिखा/कहा था " पर-निंदा कुशल बहुतेरे "।
" पर-निंदा " करने से सबसे बड़ा सुखा शायद ये मिलता है कि
मनुष्य अपनी भडास निकाल कर
कुछ मुक्त और सहज महसूस करता है…….
पर जब कुछ दिनों के बाद अपनी ही कही बात पर सोचने बैठ जाता है
तो पता चलने लगता है
कि शायद " पर-निंदा " से अधिक नकारात्मक कोई दूसरी चीज होना मुश्किल है
…और
व्यक्ति ये महसूस करने लगता है कि " उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था…..",
जीवन बहुत कीमती है।
दूसरो की बुराई करना फालतू लोगों का, ईष्यालू लोगों का काम है।
बुराई सुनना व बुराई करने के क्रम में न पड़े।
इससे नकारात्मकता उपजती है व जीवन में अन्धेरा बढ़ता है।
इससे समय ,मन,तन,व धन की हानि है।
नकारात्मक आलोचना हानिप्रद है
जबकि सकारात्मक आलोचना आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है।
जिस व्यक्ति की आलोचना की जाती है उसे तो पीड़ा होती ही है,
परन्तु जो व्यक्ति करता है वह भी पीड़ित हो जाता है,
क्योंकि वह नकारात्मक उर्जा को जन्म देता है ,
हर समय किसी को नीचा दिखाने की होड़….
हर समय किसी से आगे निकलने के लिए तरह-तरह की चालें चलना,
धोखा और फरेब से काम लेना और झूठ बोलना, चोरी करना और
ना जाने क्या क्या करता है ये मनुष्य ??
सिर्फ अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने के लिए ...
निर्जीव कहे जाने वाले तत्व अपने अपने तरीके से जीवन चक्र में अपना अपना योगदान दिए चले
जा रहे हैं…
पर जो बड़ा है,
उसे अपने बड़े होने पर घमंड नहीं है ..
वो कभी अपने से छोटे अस्तित्व वालों को हीन या हेय दृष्टि से नहीं देखता है…
जैसे पहाड कभी चट्टान को अपने से छोटा नहीं कहता है…..
आकाश कभी पहाड को अपने से छोटा नहीं बताता है…..
मनुष्य इतना बुद्धिमान होते हुए भी निर्जीव पत्थर से भी गया गुजरा कार्य कर रहा है
मनुष्य शायद उसी दिन मनुष्य कहलाये
जब एक निर्जीव पत्थर की तरह सह अस्तित्व के सिद्धांत को अपना ले और
किसी को नीचा दिखाने की और
किसी से आगे निकल जाने के बारे में कभी भी ना सोचे…

बैर

सर्प, मगर और जहरीले जंतुओं की योनि में भी बैर को नहीं भुला पाना
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कुछ लोग किसी एक बात को पकड़ लेते हैं
और जीवन भर उसी में उलझे रहते हैं |
वह स्मृति आदमी को एक तरह से मनोरोगी बना देती है |
बैर का अनुबंध इसी तरह से होता है |
किसी से दुश्मनी हुई तो ऐसे कि
आदमी जीवन भर उसकी आंच में जलता रहता है और
अपने भावी जीवन को भी बिगाड़ लेता है |
बैर और प्रतिशोध के कारण सर्प, मगर और दुसरे जहरीले जंतुओं की योनि पाई,
लेकिन इस गति में भी वे अपने बैर को भुला नहीं सकते,
बदला लेने की ताक में रहते हैं |

- आचार्य श्री महाप्रज्ञजी