Friday, August 10, 2012

दुःख !!! नजदीकी लोगों से ही ...क्यों ?


प्रश्न - हमारे नज़दीक के लोग(ज्यादातर) ही हमें बहुत दुःख देते हैं,
इसका क्या कारण है ?
ऐसे समय क्या करना चाहिए ? -
१ उत्तर - जिनके साथ सबसे ज्यादा राग (मोह) का सम्बन्ध और
सबसे ज्यादा द्वेष का सम्बन्ध भोगना बाकी होते हैं,
वही व्यक्ति हमारे सबसे नज़दीक आते हैं |
बाकी तो दुनिया में करोड़ों लोग हैं,
लेन-देन के सम्बन्ध के बिना किसी की आंखें भी नहीं मिलती |
कौन हमारे मां-बाप बनेंगे ? कौन साथी ?
कौन भाई-बहन ?
कौन पुत्र-पुत्रवधू ?
कौन बेटी-दामाद ?
कौन पड़ोसी ?
कौन सगे-सम्बन्धी ?
---
यह सब हमारे इस सृष्टि में जन्म लेने से पहले पूर्वकृत कर्मों से तय हो जाता है |
जब कोई हमारे नज़दीक के व्यक्ति ही हमें दुःख देते हों,
तब विचार करना चाहिए कि ये मेरे सगे बने हैं,
वो भी मेरे पूर्व जन्म के लेन-देन के कारण,
मेरे जीव ने पूर्वजन्म में कभी इस जीव के साथ वैर बांधा होगा | 
चाहे आज मैं अपने आप को निर्दोष मानता हूं,
लेकिन मुझे कहां पता है कि
पूर्वजन्म में इससे भी खराब दुःख इस जीव को दिया होगा |
आज जब यह जीव मेरे साथ हिसाब पूरा करने आया है, मेरे ही कर्मों की भेंट मुझे वापस करने आया है |
तब मैं समताभाव से, सहर्ष स्वीकार करूं, तो ही इस वैर की गांठ खुलेगी, नहीं तो जन्मों-जन्मों तक चलती रहेगी |
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.... नहीं ....नहीं ....महावीर का कर्मवाद समझने के बाद मुझे इसे नहीं बढ़ाना है |
मुझे यह दुःख समताभाव से सहन करना है ... सहन करना है |
'कभी किसी व्यक्ति के साथ थोड़े समय अच्छा सम्बन्ध रहता है,
फिर वही व्यक्ति दुश्मन जैसा बन जाता है | '
तब यह समझना चाहिए कि इसके साथ राग के सम्बन्ध थे वो पुरे हुए |
और अब वैर के सम्बन्ध शुरू हुए ----ऐसा लगता है |
ऐसे समय में दो चीजें ध्यान रखनी चाहिए |
१ ) राग के सम्बन्ध उदय में हो तो बहुत खुश नहीं होना चाहिए,
अहंकार नहीं करना चाहिए, राग को चालु रखने के लिए दांवपेंच नहीं करना चाहिए |
नहीं तो ... राग के कर्मों का गुणाकार हो जाएगा |
२ ) जब द्वेष के कर्म उदय में हों तब अत्यंत दु:खी नहीं होना, विलाप नहीं करना,
दोनों सम्बन्ध समता भाव से सहन करना चाहिए |
यही विचार करना चाहिए ---
* राग भी हमेशा रहनेवाला नहीं है |
* द्वेष भी हमेशा रहनेवाला नहीं है |
 कांच के बर्तन जैसे मानव के मन का क्या भरोसा ?
द्वेष के सम्बन्ध उदय में हो,तब बीच में किसी तीसरे व्यक्ति ने ही ऐसा कराया है,
ऐसे विचार कर किसी तीसरे के प्रति द्वेष के संस्कार नहीं डालना चाहिए |
तीसरे व्यक्ति को हमेशा निमित्त (secondary cause) की तरह ही देखना चाहिए |
निमित्त को दोष नहीं देना चाहिए |
 ' मेरे नसीब में ऐसा होना ही था इसलिए यह व्यक्ति इसमें निमित्त बना |'
ऐसा सोचकर जो हो गया है उसे स्वीकार कर लेना चाहिए |
हंसते हुए स्वीकार कर लेना चाहिए |
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ऐसे समय महापुरुषों का जीवन याद करना चाहिए |
 .... खुद महावीर स्वामी की पुत्री और दामाद उनके विरुद्ध हो गए थे |
तो क्या महावीर स्वामी ने उनपर क्रोध किया ?
आपके कुछ सगों को ही आपको खराब दिखाने में ज्यादा रस होता है,
दूर की तो बात ही छोड़िये |
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* पार्श्वनाथ भगवान को उनके सगे भाई का जीव आठ-आठ भव तक उनको मारने वाला बना |
एक छोटी सी वैर की गांठ कितना बड़ा वृक्ष बना ?
* गांधीजी को पूरी दुनिया मान देती है, लेकिन उनका खुद का पुत्र उनके विरुद्ध था |*
ईसा मसीह को कीले ठोकने वाले उनके ही व्यक्ति थे |
इन सबका विचार करके मन को समझाना चाहिए कि
" कसौटी तो सोने की ही होती है पीतल की नहीं "
यदि मैं पीतल की लाइन में हूं तो मुझे मेरी भूलें सुधारकर सोने की लाइन में आना है |
अगर मैं सोने की लाइन में हूं तो स्वयं को कर्मवाद के भरोसे छोड़ देना चाहिए |
प्रत्येक जीव हमारे साथ हिसाब पूरा करने ही आता है,
ऐसा समझकर ह्रदय में समता धारण करना चाहिए |
फिर भी यह जीव करोड़ों वर्षों के संस्कार साथ लेकर आया है;
इस कारण से शायद उस व्यक्ति पर या निमित्त पर बहुत दुःख या द्वेष भी हो सकता है ...
फिर भी जितना जल्दी बने होश में आकर ह्रदय से दुश्मन से भी क्षमा मांग लेना चाहिए |
जितना बने आत्मभाव में लीन रहना चाहिए,जिससे कर्म कटेंगे |

Thursday, August 9, 2012

संकल्प misfire

संकल्प का प्रयोग -Misfire 
कलकत्ते में एक घर में प्रवास के समय घर की बहु ने समणी जी को बताया कि मेरी सास जो ७५ वर्ष की है, दिन में २ बार नहाती हैं, वो भी ४५ मिनट तक | आप कुछ समझा सकें तो....
शाम को सास को समणी जी ने समझाया कि शरीर का इतना ममत्व सही नहीं |
सास बोली मैं भी समझती हूँ, पर बचपन से आदत है |
समणी जी ने कहा - मांजी ! एक काम करो | दिन भर " आत्मा म्हारी, शरीर न्यारो " का जाप किया करो, ३ मही
ने बाद बताना |
( नोट - आत्मा म्हारी, शरीर न्यारो का हिंदी अनुवाद = आत्मा मेरी, शरीर अलग )
३ महीने भी बीत गए |
पूरा परिवार समणी जी के दर्शन करने आया |
एकांत मिलते ही बहु बोली - समणी जी ! आपने मांजी को क्या समझाया |
अब तो वोह दोपहर में भी नहाने लगी हैं |
समणी जी भी चकित !
ये क्या हुआ |
खैर.....
सास को बुलाकर उनकी खैर-तवज्जो पूछी, फिर बोली -
आपको मन्त्र बताया था, उसका जाप करती हैं ना ?
मांजी - हां ! समणी जी |
समणी जी - नहाना कम हुआ ?
मांजी - नहीं, अब तो मैं तीन बार नहाती हूँ |
समणी जी - आप क्या जाप करती हैं ?
मांजी बोली - आत्मा न्यारी, शरीर म्हारो |
( आत्मा न्यारी, शरीर म्हारो का हिंदी अनुवाद = आत्मा अलग, शरीर मेरा )

Wednesday, August 1, 2012

ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति,

ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, 

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ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति....

व्यवहार में दृढ़ता लायें !!!

व्यवहार मे ढृडता कैसे लाए
व्यवहार मे ढृडता लाने का अर्थ यह कताई नही है कि आप दुसरो पर चिल्‍लाएं, रोब जमाएँ, गुस्सा करें, दोष लगाएं या उन्हे भयभीत करें । दृढ होने का अर्थ है कि आप अपने पक्ष मे खडे हैं और साथ ही दुसरों के अधिकारो का भी हनन नही कर रहे अर्थात स्पष्‍ट शब्दों मे अपनी बात कहना या सब के सामने रखना। यह आपकी भावनाओं, इच्छाओं, व विचारों का ईमानदार प्रस्तुतिकरण होता है। इसे प्राय: आपके आत्म-सम्मान व आत्म-छवि से भी जोडा जाता है।

बचपन मे ही हमारा निजी रवैया ढंग विकसित हो जाता है। उसपर हमारे परिवार, माहौल, और यारो-दोस्तो का भी असर पडता है। यदि बचपन मे आपको बडे अनुशासन मे रखें तो हो सकता है आप उन्ही विचारो को जीवन मे आगे चल कर पेश करें।


अपने व्यवहार मे दृढ़ता लाने के लिए नकारात्मक भाषणो व विचारो से बचना चाहिए, जैसे " हो सकता है, मै गलती पर था या क्या तुम मेरे लिए ऐसा नही करोगे?" ऐसे वाक्यो से आपकी दृढ़ता टूटती है। जब भी आप किसी बात के लिए 'ना' कहना चाहे तो स्पष्ट शब्दो मे कहें । उस समय शर्मिंदा हो कर या यह सोच कर कि सामने वाला नाराज़ होगा, माफी मागने की जरुरत नही है।

कई बार दृढता और आत्म-सम्मान की कमी को आपस मे जोड कर देखा जाता है । आत्म-सम्मान की कमी होने से इंसान अपने आप को हीन महसूस करता है और वह सब के सामने बोल नही पाता। यह मनुष्य को कई तरह से प्रभावित करती है । कई लोग इसकी वजह से गुस्सैल और आक्रामक हो जाते है । यही बर्ताव उन्हे और भी बुरा बना देता है । कुछ मामलों मे बीती बातें याद करके, दृढता अपनाने से हिचकते हैं क्योकि वह दुसरो को नाराज़ नही करना चहते।

यदि आपने दृढ रवैया नही अपनाया तो आपके साथ या नीचे काम करने वाले आपकी योग्यताओ व रवैये को गंभीरता से नही लेगें । यदि मीटिगं आदि मे आपने दृढता से अपना पक्ष नही रखा या दुसरो की अप्रसंन्नता के भय से अपना मत व्यक्त नही किया तो बाँस को आपकी योग्यता पर संदेह होने लगेगा।

इस तरह से दूसरे लोग आसानी से आपसे फायदा उठा सकते हैं और आपकी योग्यता पर संदेह कर सकते है। कुछ लोग बिना किसी वजह के ही माफी माँगते रह्ते है। यह उनकी अपनी शक्तिहीनता का संकेत होता है। जब तक आपने कोई गलती नही की, तो केवल एक 'साँरी' आपको दोषी बना सकता है। किसी भी परेशानी मे अपने परिवार व दोस्तो की मदद लें । दायित्व व परिस्थितियो से मुँह न मोडें। लगातार अभ्यास से अपने भीतर दृढता पैदा करें। यदि आप कही दृढता नही दिखा पाते तो शर्मिन्दा होने की बजाए अपने-आपसे वादा करें कि आप अगली बार ऐसा नही होने देंगे।

मनचाहा फल मिले या नही, अपने आपको प्रोत्साहित करते रहें। बेचैनी और व्याकुलता से बचें। अतीत से छूट्कर जीवन की नई यात्रा मे उसका साथ दें। अपने हृदय से सारी घृणा निकाल कर इसे प्रेम से लबालब भर दे, हालाकि यह इतना आसान नही है परन्तु लगातार प्रयास से संभव है। ऐसा करने पर ही आप स्वंय को मुक्‍त अनुभव कर पाएगे।

आप जब भी अपना तर्क प्रस्तुत करें तो मरियल स्वरों ने कहने के बजाए पूरे दम खम से अपनी बात कहें । बात करते-करते जहां वाक्य खत्म होने वाला हो वहां अपने स्वर को सम पर ले आएँ। किसी से बात करते समय बार-बार सिर न हिलाए, ज़रुरत से ज्यादा न मुस्कुराएँ, अपनी गर्दन एक ओर न झुकाए और न ही अपनी आंखे फेरें, सीधे नेत्रो का संपर्क बना रहे। गरिमामयी, आरामदायक मुद्रा मे बैठे । ध्यान रहे कि आपके चेहरे के भाव आपकी बात से मेल खानी चाहिए। दुसरो की बात को ध्यान से सुने व उन्हे ऐहसास दिलाएँ कि आप उन्हे सुन रहे है। यदि कोई स्पष्‍टीकरण चाहते है तो प्रश्‍न पूछे। अपनी शक्ति को कम न करें। जब भी आप बात करें तो ध्यान रहे कि आपकी पूरी बात स्पष्‍ट्ता से सामने वाले तक पहुँच रही है या नही?