Thursday, May 31, 2012

धर्म है -

" धर्म है - संवर और निर्ज़रा |
धर्म का एक काम है कर्मों को रोकना |
धर्म का दूसरा काम है कर्मों को तोडना |
बस धर्म के दो ही काम हैं |
पुण्य का होना या अच्छा फल मिलना,
यह धर्म का कार्य नहीं है |
फिर भी लीग कह देते हैं -
धर्म से पुत्र मिला, धन मिला आदि |
पुण्य का बंध निर्ज़रा से नहीं,
निर्ज़रा के साथ होता है |
अनाज से 'खाखला' नहीं होता,
अनाज के साथ-साथ होता है |
यह साहचर्य, साथ में होना |
जहां धर्म है,
निर्ज़रा है,
वहां उसके साथ-साथ पुण्य का बंध भी होता है |
उस बंध से अच्छे फल मिलते हैं |

क्षमा

" क्षमा "
" क्षमायां स्थाप्यते धर्म: "
अनुवाद 
धर्म के रहने का स्थान क्षमा ही है |
क्षमा के अभाव में कोई धर्म टिक ही नहीं सकता |
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क्षमाशील पुरुष किसी के द्वारा कहे गए कटु वचन सुनकर ऐसा चिंतन-मनन करते हैं -
" मैं इसका कुछ अपराध किया है या नहीं ? "
अगर अपराध किया है,
तो उसके बदले मुझे कटु शब्दों को सहन करना ही चाहिए |
बिना बदला चुकाए छुटकारा मिल नहीं सकता |
अगर इस समय बदला नहीं चुकाऊंगा तो आगे ब्याज सहित चुकाना पड़ेगा |
अच्छा ही हुआ कि यह यहीं चुकता कर रहा है |
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अगर मैंने अपराध नहीं किया है 
और 
यह कटु वचन कह रहा है तो इसमें मेरी क्या हानि है ?
यह अपने अपराधी से कह रहा है |
मैं निरपराध हूं |
इसलिए गालियाँ मुझे लगती नहीं |
बेचारा मूढ़ बोलते-बोलते स्वयं थक जाएगा,
तब चुप हो जायेगा |
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क्षमावान व्यक्ति यह भी सोचता है, चिंतन करता है, मनन करता है -
यह मूढ़ मनुष्य मुझे चोर, ठग, कपटी आदि कहता है,
सो ठीक ही कहता है |
क्योंकि इस जन्म में नहीं तो पिछले किसी जन्म में मैंने ये कृत्य भी किये होंगे |
यह सत्य कह रहा है |
सत्यवादी पर मुझे 'क्रोध' नहीं करना चाहिए |
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अगर कोई व्यक्ति आपको कर्महीन या अकर्मी कहे,
तो यह वचन सुनकर क्षमाशील पुरुष को समझना चाहिए कि 
यह तो मुझे मोक्ष प्राप्त करने का आशीर्वाद दे रहा है,
क्योंकि जो कर्महीन अथवा अकर्मी होता है,
वही मोक्ष पाता है |
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क्षमाशील पुरुष को यह सोचना चाहिए कि 
जिसके पास जैसी वस्तु होगी,
वह वैसी ही दे सकता है |
हलवाई की दूकान पर मिठाई और चमार की दूकान पर जुते मिलते हैं |
इसी प्रकार उत्तम जनों से अच्छे वचन प्राप्त होते हैं 
और 
अधम जनों से खराब वचन सुनने को मिलते हैं |
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अगर आपको गाली बुरी लगती है तो
उसे ग्रहण ही न् करें |
अस्वीकार कर दें |
अपने ह्रदय की पवित्रता को कलुषित मत होने दें |
कोई विवेकशील पुरुष अपने सोने के पात्र में गंदगी नहीं भरता |

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अगर कोई अपशब्द कहता है तो उसके द्वारा बोले गए शब्दों पर ध्यान देना चाहिए |
जो दुर्गुण सामनेवाला व्यक्ति बतला रहा है,
उनके विषय में विचार करना चाहिए |
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अगर वे दुर्गुण भीतर मौजूद हैं
तो सोचना चाहिए कि
भीतरी रोग की परीक्षा के लिए वैद्य-डाक्टर को फीस देनी पड़ती है |
लेकिन इस निंदक ने फीस लिए बिना ही भीतर का ' भयंकर ' रोग बतला दिया है |
मुझे तो इसका उपकार मानना चाहिये |

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अगर निंदक द्वारा कहे गए दोष अपने भीतर नहीं है,
तो यह समझना चाहिए कि -
" हीरा " को कांच कह देने से " हीरा " कांच नहीं बन जाता |
इसी प्रकार जब मैं बुरा नहीं हूं,
तो " किसी " के कहने से कैसे बुरा हो जाऊँगा ?

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क्रोधवश सामनेवाला मारने आता है या मारता है,
तो विवेकशील पुरुष चिंतन करता है,
मनन करता है और श्लोक को स्मरण करता है -

" नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावक: |
न चैनं क्लेदयंत्यापो, न शोषयति मारुत : || "
अर्थात् -
आत्मा को शस्त्र छेद नहीं सकते, अग्नि जला नहीं सकती,
जल गला नहीं सकता और वायु सोख नहीं सकती |
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शरीर आत्मा से भिन्न है,
इसका नाश अवश्यंभावी है;
फिर इस विनाशशील शरीर के लिए मैं अपने " क्षमाधर्म " को क्यों नष्ट करूं ?



Friday, May 18, 2012

देशावकाशिक व्रत

श्रावक के १२ व्रतों में १० वां व्रत है -
देशावकाशिक व्रत - इस व्रत में पहले लिए गए नियम को छोटा या विस्तार किया जाता है |
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जैसे सुबह किसी ने २५ द्रव्यों की सीमा की और
दोपहर को देखा कि १३ से ही काम चल सकता है,
तो १३ द्रव्य का प्रत्याख्यान कर लिया |
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अथवा सुबह आपने भारत से बाहर जाने का त्याग किया,
दोपहर को कर्णाटक से,
शाम को बंगलोर से और
रात्रि को घर से भी बाहर जाने का |
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इस प्रकार विवेक से त्याग को लम्बा या छोटा करना |

भरे हुए को ही भरते हैं

मेघाष्टकम - 
आचार्य श्री महाप्रज्ञजी ने मेघ को गहराई से देखा |
मेघ के माध्यम से उन्होंने मानवीय प्रकृति को चित्रित करते हुए लिखा -
" जिस मरुधर प्रदेश में सूर्य के आतप से भूमि-विभाग अग्नि की तरह तप उठता है 
और 
जहां के प्यासे लोग चिलचिलाती धुप से झुलसते हुए बूँद-बूँद के लिए प्रतीक्षा करते हैं,
वहां मेघ का दर्शन सुलभ नहीं होता |
किन्तु जहां समुद्र की लहरें उछलती रहती हैं,
वहां बादलों का समूह आकाश में मंडराता रहता है |
( वर्षा भी अत्यधिक होती है )
यह सत्य है कि
सभी लोग भरे हुए को ही भरते हैं |
~ आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी की पुस्तक " प्रकृतिविहार: " से

आप अमृत बांट रहे हैं

‎"आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी फरमाते थे -
गुरु उलाहना देते और साध्वियां फरमाती -
" आप अमृत बांट रहे हैं "
~ आचार्य श्री महाश्रमण जी

३ प्रकार के मनुष्य

मनुष्य ३ प्रकार के होते हैं -
१. भोले,
२. चालाक,
और 
३. भले 
भोलापन अच्छा नहीं है,
बहुत चालाकी भी अच्छी नहीं है |
भला व्यक्ति
स्व
और
पर दोनों का हित साधता है |
जीवन में भलाई आये,
ऐसा प्रयास सबको करना चाहिए |
~ आचार्य श्री तुलसी

प्रमाद ?

प्रमाद का अर्थ है - अध्यात्म के प्रति आतंरिक अनुत्साह |
साधारण भाषा में आलस्य कहते हैं, पर धर्म में रूचि न होना ही प्रमाद कहा गया है |
संसारी व्यक्ति हैं, दिन-भर में सैकड़ों काम हैं, कर्त्तव्य हैं, उन्हें करना ही चाहिए |
पर जब समय हो और उसे यूँही इधर-उधर में व्यतीत कर देना प्रमाद है |

श्रावक के ३ मनोरथ

श्रावक के ३ मनोरथ -
१. श्रावक यह भावना भाये कि वह शुभ दिन कब आएगा जब मैं अल्प या अधिक परिग्रह का त्याग करूंगा |
२. श्रावक यह चिंतन करे कि वह शुभ समय कब प्राप्त होगा जब मैं गृहस्थावास को छोड़कर संयम ग्रहण करूंगा |
३. श्रावक यह विचार करे कि वह मंगल बेला कब आएगी जब मैं अंतिम समय संलेखना व अनशन कर, 
मरण की इच्छा न करता हुआ समाधि मरण को प्राप्त करूंगा |

सामायिक-पाठ


सामायिक-पाठ
सामायिक शुरू करने से पहले वंदन-पाठ ( तिक्खुत्तो ) पढना चाहिए |
सामायिक ऐसे करें -
वंदे अर्हम       - ३ बार
वन्दे गुरुवरम  - ३ बार
वंदे सच्चम    -  ३ बार
सामायिक प्रतिज्ञा -
करेमि भंते! सामाइयं ( हे भगवान् ! मैं सामायिक करता हूं |
सावज्जं जोगं ( सावद्द योग [ पापकारी प्रवृत्ति ] का )
पच्चक्खामि  ( प्रत्याख्यान करता हूं )
जाव नियमं ( सामायिक का जितना काल हो )
( मुहुत्तं एगं ) एक मुहूर्त ( ४८ मिनट )
पज्जुवासामि दुविहं ( मैं उपासना करता हूं )
तिविहेणं ( तीन योग से [मन, वचन, काया ]
न करेमि ( न करूंगा )
न कारवेमि ( न कराऊंगा )
मणसा (मन से )
वयसा (वचन से )
कायसा (काया से )
तस्स ( उन पूर्वकृत कार्यों से )
भंते! ( हे भगवन !)
पडिक्कमामि ( निवृत्त होता हूं )
निन्दामि ( निंदा करता हूं ) आत्म-साक्षी से
गरिहामि ( गुरु साक्षी से आलोचना करता हूं )
अप्पाणं वोसिरामि  (आत्मा को पाप से दूर करता हूं )
नोट- सामायिक पाठ के बाद ५ वार नवकार महामंत्र बोलें |
इसके बाद चतुर्विंशति-स्तव (लोगस्स) का पाठ अवश्य पढ़ें |


सम्यक्त्व के ५ भूषण

भगवान महावीर -
सम्यक्त्व के ५ भूषण हैं |
१. धर्म में स्थिरता 
२. प्रभावना - धर्म का महत्व बढे, वैसा कार्य करना |
३. धर्म या धर्म-गुरु के प्रति भक्ति रखना |
४. जैन शासन में कौशल प्राप्त करना 
५. तीर्थसेवा - चतुर्विध संघ को धार्मिक सहयोग देना |

वास्तविकता क्या है ?

वास्तव में संयोग दुःख है,
वियोग तो मात्र उसकी एक परिणति है |
~ आचार्य श्री तुलसी की पुस्तक " हस्ताक्षर " से

क्षणे रुष्टा: क्षणे तुष्टा :

क्षणे रुष्टा: क्षणे तुष्टा : की मनोवृत्ति कम करो - आचार्य श्री तुलसी |
( क्षणे रुष्टा: क्षणे तुष्टा : का मतलब एक क्षण में रुष्ट, एक क्षण में तुष्ट )