Sunday, November 18, 2012

निंदक नियरे राखिये



कबीर ने कहा है, निंदक नियरेराखिए..।
इसका अर्थ है कि हमें निंदक को अपने निकट रखना चाहिए।
लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं कहा है कि हम दूसरों की निंदा में ही अपना समय व्यतीत करें।
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सच तो यह है कि हम स्वयं को दूसरों से श्रेष्ठ साबित करने के लिए उनकी निंदा करते हैं।
वास्तव में, मानव मन निर्मल और पवित्र होता है।
आप अपने मन में जैसी भावनाओं का संचार करते हैं,
दूसरों के सम्मुख वैसे ही विचार प्रकट करते हैं।
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फिर मानव मन अपने संकल्प सागर में निंदा के कंकड-पत्थर की सृष्टि क्यों करता है?
हो सकता है कि इसके पीछे हमारा दूसरे व्यक्ति को सुधारने का विचार काम करता हो!
पर क्या निंदा करने का उद्देश्य उस व्यक्ति की भूलें बताकर उसे सन्मार्ग पर लाना होता है?
यदि यह सच है, तो पीठ पीछे दोष-चर्चा से कोई लाभ सिद्ध नहीं हो सकता है।
प्रत्यक्ष में संबंधित व्यक्ति की भूलों की ओर संकेत करने से ही यह संभव हो सकता है।
वास्तव में, निंदा का उद्देश्य सहज प्रयत्न से अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना होता है।
अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करना मानवीय अहम की दुर्बलता है।
जब हम किसी व्यक्ति की निंदा करते हैं,
तो उसके पीछे यह भाव छिपा होता है कि
दूसरे व्यक्ति कितने अधूरे हैं और बुराइयों के पुतले हैं,
लेकिन मैं जिन बुराइयों की ओर संकेत कर रहा हूं, इनसे अछूता हूं।
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जिस व्यक्ति से हम किसी और व्यक्ति की निंदा करते हैं,
तो उस पर इसका विपरीत प्रभाव पडता है।
निंदा सुनने वाला व्यक्ति निंदा करने वाले को ऐसा कमजोर व्यक्ति मान लेता है,
जो स्वयं अधूरा है।
दूसरे व्यक्ति पर निंदा का कीचड फेंककर वह स्वयं उजला बनने की कोशिश कर रहा है।
निंदा करने वाले व्यक्ति का यह तर्क हो सकता है कि
वह बुराइयां बताकर संबंधित व्यक्ति को आगाह कर रहा है।
यानी वह सामने वाले व्यक्ति को अपना मित्र मान रहा है।
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इसके ठीक उलट नीतिकारकहते हैं कि सच्चा मित्र वही है,
जो मित्र की बुराइयों को छिपा लेता है और
केवल गुणों को ही प्रकट करता है।
यहां पर यह प्रश्न उठ सकता है कि
यदि हमारा प्रिय व्यक्ति, अपने आचरण में परिवर्तन नहीं ला पा रहा है,
तब उसके अनुचित व्यवहार को समाप्त कैसे किया जाए?
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नीतिकारकहते हैं कि ऐसी स्थिति में दो उपाय बचते हैं---
उसके अवगुणों पर कोई ध्यान न दिया जाए या कोई टीका-टिप्पणी न की जाए।
दूसरा उपाय यह है कि संबंधित व्यक्ति से प्रत्यक्ष रूप से उसके अवगुणों की चर्चा की जाए और
उसे समाप्त करने का निवेदन किया जाए।
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वहीं दूसरी ओर, निंदा का प्रयोग न केवल निष्फल, बल्कि प्रत्येक दशा में आत्मघाती ही है।
निंदा करने से मनुष्यों को स्वयं की क्षति होती है।
वह न केवल हीन भावना का शिकार होता है,
बल्कि उसका आत्मविश्वास भी प्रभावित होता है।
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जब हम किसी व्यक्ति की निंदा करते हैं,
तो इसका मतलब यह है कि हमारी स्वयं की तलाश समाप्त हो चुकी है,
इसीलिए हम बाहर की ओर देखने लगे हैं।
इस प्रक्रिया में हम दूसरे व्यक्ति की बुराई करने लगते हैं।
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यदि हम दूसरों की निंदा करने के बजाय स्वयं के भीतर में झांके,
यानी आत्मा की आवाज सुनें,
तो यह हमारे लिए बेहतर होगा।
आत्मा आनंद का अनंत भंडार है।
आनंद के इस स्रोत पर नियंत्रण करना है,
तो निंदा के हलाहल को फेंकना ही होगा।
सचमुच यह एक ऐसी मदिरा है,
जिसे छोडने के लिए तीव्र संकल्प और सजगता की आवश्यकता होती है।

पर-निंदा / मनोबल बढाओ


पर-निंदा
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परनिंदा में प्रारंभ में काफी आनंद मिलता है,
लेकिन बाद में निंदा करने से मन में अशांति व्याप्त होती है और
हम हमारा जीवन दुःखों से भर लेते हैं।
प्रत्येक मनुष्य का अपना अलग दृष्टिकोण एवं स्वभाव होता है।
दूसरों के विषय में कोई अपनी कुछ भी धारणा बना सकता है।
हर मनुष्य का अपनी जीभ पर अधिकार है और
निंदा करने से किसी को रोकना संभव नहीं है।

लोग अलग-अलग कारणों से निंदा रस का पान करते हैं।
कुछ सिर्फ अपना समय काटने के लिए किसी की निंदा में लगे रहते हैं.....
तो कुछ खुद को किसी से बेहतर साबित करने के लिए निंदा को अपना नित्य का नियम बना लेते हैं।
निंदकों को संतुष्ट करना संभव नहीं है।

जिनका स्वभाव है निंदा करना,
वे किसी भी परिस्थिति में निंदा प्रवृत्ति का त्याग नहीं कर सकते हैं।
इसलिए समझदार इंसान वही है,
जो लोगों द्वारा की गई विपरीत टिप्पणियों की उपेक्षा कर अपने काम में तल्लीन रहता है।
किस-किस के मुंह पर अंकुश लगाया जाए,
कितनों का समाधान किया जाए!

प्रतिवाद में व्यर्थ समय गंवाने से बेहतर है --
अपने मनोबल को और भी अधिक बढ़ाकर जीवन में प्रगति के पथ पर आगे बढ़ते रहें।
ऐसा करने से एक दिन आपकी स्थिति काफी मजबूत हो जाएगी और
आपके निंदकों को सिवाय निराशा के कुछ भी हाथ नहीं लगेगा।

संसार में प्रत्येक जीव की रचना ईश्वर ने किसी उद्देश्य से की है।
हमें ईश्वर की किसी भी रचना का मखौल उड़ाने का अधिकार नहीं है।
इसलिए किसी की निंदा करना साक्षात परमात्मा की निंदा करने के समान है।
किसी की आलोचना से आप खुद के अहंकार को कुछ समय के लिए तो संतुष्ट कर सकते हैं
किन्तु किसी की काबिलियत, नेकी, अच्छाई और सच्चाई की संपदा को नष्ट नहीं कर सकते।
जो सूर्य की तरह प्रखर है,
उस पर निंदा के कितने ही काले बादल छा जाएं
किन्तु उसकी प्रखरता, तेजस्विता और ऊष्णता में कमी नहीं आ सकती।
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कुछ लोगों का प्रिय शगल है - दूसरों की निंदा करना। 
सदैव दूसरों में दोष ढूंढते रहना मानवीय स्वभाव का एक बड़ा अवगुण है। 
दूसरों में दोष निकालना और 
खुद को श्रेष्ठ बताना कुछ लोगों का स्वभाव होता है। 
इस तरह के लोग हमें कहीं भी आसानी से मिल जाएंगे।
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स्वयं को हानि पहंचाने वाले कृत्य करना स्व-पराजय है। 
हम सामान्यतः ईष्र्या के कारण दूसरों की बुराई कर स्वयं को हराते है। 
किसी की बुराई कर अपना समय खराब न करें।

पर-निंदा किसी भी व्यक्त्ति के लिये स्वयं के लिये हानिकारक है
पर तब भी समाज की सच्चाई को देखते हुये
एक विद्वान ने लिखा/कहा था " पर-निंदा कुशल बहुतेरे "।
" पर-निंदा " करने से सबसे बड़ा सुखा शायद ये मिलता है कि
मनुष्य अपनी भडास निकाल कर
कुछ मुक्त और सहज महसूस करता है…….
पर जब कुछ दिनों के बाद अपनी ही कही बात पर सोचने बैठ जाता है
तो पता चलने लगता है
कि शायद " पर-निंदा " से अधिक नकारात्मक कोई दूसरी चीज होना मुश्किल है
…और
व्यक्ति ये महसूस करने लगता है कि " उसे ऐसा नहीं करना चाहिए था…..",
जीवन बहुत कीमती है।
दूसरो की बुराई करना फालतू लोगों का, ईष्यालू लोगों का काम है।
बुराई सुनना व बुराई करने के क्रम में न पड़े।
इससे नकारात्मकता उपजती है व जीवन में अन्धेरा बढ़ता है।
इससे समय ,मन,तन,व धन की हानि है।
नकारात्मक आलोचना हानिप्रद है
जबकि सकारात्मक आलोचना आगे बढ़ने के लिए आवश्यक है।
जिस व्यक्ति की आलोचना की जाती है उसे तो पीड़ा होती ही है,
परन्तु जो व्यक्ति करता है वह भी पीड़ित हो जाता है,
क्योंकि वह नकारात्मक उर्जा को जन्म देता है ,
हर समय किसी को नीचा दिखाने की होड़….
हर समय किसी से आगे निकलने के लिए तरह-तरह की चालें चलना,
धोखा और फरेब से काम लेना और झूठ बोलना, चोरी करना और
ना जाने क्या क्या करता है ये मनुष्य ??
सिर्फ अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने के लिए ...
निर्जीव कहे जाने वाले तत्व अपने अपने तरीके से जीवन चक्र में अपना अपना योगदान दिए चले
जा रहे हैं…
पर जो बड़ा है,
उसे अपने बड़े होने पर घमंड नहीं है ..
वो कभी अपने से छोटे अस्तित्व वालों को हीन या हेय दृष्टि से नहीं देखता है…
जैसे पहाड कभी चट्टान को अपने से छोटा नहीं कहता है…..
आकाश कभी पहाड को अपने से छोटा नहीं बताता है…..
मनुष्य इतना बुद्धिमान होते हुए भी निर्जीव पत्थर से भी गया गुजरा कार्य कर रहा है
मनुष्य शायद उसी दिन मनुष्य कहलाये
जब एक निर्जीव पत्थर की तरह सह अस्तित्व के सिद्धांत को अपना ले और
किसी को नीचा दिखाने की और
किसी से आगे निकल जाने के बारे में कभी भी ना सोचे…

बैर

सर्प, मगर और जहरीले जंतुओं की योनि में भी बैर को नहीं भुला पाना
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कुछ लोग किसी एक बात को पकड़ लेते हैं
और जीवन भर उसी में उलझे रहते हैं |
वह स्मृति आदमी को एक तरह से मनोरोगी बना देती है |
बैर का अनुबंध इसी तरह से होता है |
किसी से दुश्मनी हुई तो ऐसे कि
आदमी जीवन भर उसकी आंच में जलता रहता है और
अपने भावी जीवन को भी बिगाड़ लेता है |
बैर और प्रतिशोध के कारण सर्प, मगर और दुसरे जहरीले जंतुओं की योनि पाई,
लेकिन इस गति में भी वे अपने बैर को भुला नहीं सकते,
बदला लेने की ताक में रहते हैं |

- आचार्य श्री महाप्रज्ञजी

Friday, August 10, 2012

दुःख !!! नजदीकी लोगों से ही ...क्यों ?


प्रश्न - हमारे नज़दीक के लोग(ज्यादातर) ही हमें बहुत दुःख देते हैं,
इसका क्या कारण है ?
ऐसे समय क्या करना चाहिए ? -
१ उत्तर - जिनके साथ सबसे ज्यादा राग (मोह) का सम्बन्ध और
सबसे ज्यादा द्वेष का सम्बन्ध भोगना बाकी होते हैं,
वही व्यक्ति हमारे सबसे नज़दीक आते हैं |
बाकी तो दुनिया में करोड़ों लोग हैं,
लेन-देन के सम्बन्ध के बिना किसी की आंखें भी नहीं मिलती |
कौन हमारे मां-बाप बनेंगे ? कौन साथी ?
कौन भाई-बहन ?
कौन पुत्र-पुत्रवधू ?
कौन बेटी-दामाद ?
कौन पड़ोसी ?
कौन सगे-सम्बन्धी ?
---
यह सब हमारे इस सृष्टि में जन्म लेने से पहले पूर्वकृत कर्मों से तय हो जाता है |
जब कोई हमारे नज़दीक के व्यक्ति ही हमें दुःख देते हों,
तब विचार करना चाहिए कि ये मेरे सगे बने हैं,
वो भी मेरे पूर्व जन्म के लेन-देन के कारण,
मेरे जीव ने पूर्वजन्म में कभी इस जीव के साथ वैर बांधा होगा | 
चाहे आज मैं अपने आप को निर्दोष मानता हूं,
लेकिन मुझे कहां पता है कि
पूर्वजन्म में इससे भी खराब दुःख इस जीव को दिया होगा |
आज जब यह जीव मेरे साथ हिसाब पूरा करने आया है, मेरे ही कर्मों की भेंट मुझे वापस करने आया है |
तब मैं समताभाव से, सहर्ष स्वीकार करूं, तो ही इस वैर की गांठ खुलेगी, नहीं तो जन्मों-जन्मों तक चलती रहेगी |
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.... नहीं ....नहीं ....महावीर का कर्मवाद समझने के बाद मुझे इसे नहीं बढ़ाना है |
मुझे यह दुःख समताभाव से सहन करना है ... सहन करना है |
'कभी किसी व्यक्ति के साथ थोड़े समय अच्छा सम्बन्ध रहता है,
फिर वही व्यक्ति दुश्मन जैसा बन जाता है | '
तब यह समझना चाहिए कि इसके साथ राग के सम्बन्ध थे वो पुरे हुए |
और अब वैर के सम्बन्ध शुरू हुए ----ऐसा लगता है |
ऐसे समय में दो चीजें ध्यान रखनी चाहिए |
१ ) राग के सम्बन्ध उदय में हो तो बहुत खुश नहीं होना चाहिए,
अहंकार नहीं करना चाहिए, राग को चालु रखने के लिए दांवपेंच नहीं करना चाहिए |
नहीं तो ... राग के कर्मों का गुणाकार हो जाएगा |
२ ) जब द्वेष के कर्म उदय में हों तब अत्यंत दु:खी नहीं होना, विलाप नहीं करना,
दोनों सम्बन्ध समता भाव से सहन करना चाहिए |
यही विचार करना चाहिए ---
* राग भी हमेशा रहनेवाला नहीं है |
* द्वेष भी हमेशा रहनेवाला नहीं है |
 कांच के बर्तन जैसे मानव के मन का क्या भरोसा ?
द्वेष के सम्बन्ध उदय में हो,तब बीच में किसी तीसरे व्यक्ति ने ही ऐसा कराया है,
ऐसे विचार कर किसी तीसरे के प्रति द्वेष के संस्कार नहीं डालना चाहिए |
तीसरे व्यक्ति को हमेशा निमित्त (secondary cause) की तरह ही देखना चाहिए |
निमित्त को दोष नहीं देना चाहिए |
 ' मेरे नसीब में ऐसा होना ही था इसलिए यह व्यक्ति इसमें निमित्त बना |'
ऐसा सोचकर जो हो गया है उसे स्वीकार कर लेना चाहिए |
हंसते हुए स्वीकार कर लेना चाहिए |
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ऐसे समय महापुरुषों का जीवन याद करना चाहिए |
 .... खुद महावीर स्वामी की पुत्री और दामाद उनके विरुद्ध हो गए थे |
तो क्या महावीर स्वामी ने उनपर क्रोध किया ?
आपके कुछ सगों को ही आपको खराब दिखाने में ज्यादा रस होता है,
दूर की तो बात ही छोड़िये |
---
* पार्श्वनाथ भगवान को उनके सगे भाई का जीव आठ-आठ भव तक उनको मारने वाला बना |
एक छोटी सी वैर की गांठ कितना बड़ा वृक्ष बना ?
* गांधीजी को पूरी दुनिया मान देती है, लेकिन उनका खुद का पुत्र उनके विरुद्ध था |*
ईसा मसीह को कीले ठोकने वाले उनके ही व्यक्ति थे |
इन सबका विचार करके मन को समझाना चाहिए कि
" कसौटी तो सोने की ही होती है पीतल की नहीं "
यदि मैं पीतल की लाइन में हूं तो मुझे मेरी भूलें सुधारकर सोने की लाइन में आना है |
अगर मैं सोने की लाइन में हूं तो स्वयं को कर्मवाद के भरोसे छोड़ देना चाहिए |
प्रत्येक जीव हमारे साथ हिसाब पूरा करने ही आता है,
ऐसा समझकर ह्रदय में समता धारण करना चाहिए |
फिर भी यह जीव करोड़ों वर्षों के संस्कार साथ लेकर आया है;
इस कारण से शायद उस व्यक्ति पर या निमित्त पर बहुत दुःख या द्वेष भी हो सकता है ...
फिर भी जितना जल्दी बने होश में आकर ह्रदय से दुश्मन से भी क्षमा मांग लेना चाहिए |
जितना बने आत्मभाव में लीन रहना चाहिए,जिससे कर्म कटेंगे |

Thursday, August 9, 2012

संकल्प misfire

संकल्प का प्रयोग -Misfire 
कलकत्ते में एक घर में प्रवास के समय घर की बहु ने समणी जी को बताया कि मेरी सास जो ७५ वर्ष की है, दिन में २ बार नहाती हैं, वो भी ४५ मिनट तक | आप कुछ समझा सकें तो....
शाम को सास को समणी जी ने समझाया कि शरीर का इतना ममत्व सही नहीं |
सास बोली मैं भी समझती हूँ, पर बचपन से आदत है |
समणी जी ने कहा - मांजी ! एक काम करो | दिन भर " आत्मा म्हारी, शरीर न्यारो " का जाप किया करो, ३ मही
ने बाद बताना |
( नोट - आत्मा म्हारी, शरीर न्यारो का हिंदी अनुवाद = आत्मा मेरी, शरीर अलग )
३ महीने भी बीत गए |
पूरा परिवार समणी जी के दर्शन करने आया |
एकांत मिलते ही बहु बोली - समणी जी ! आपने मांजी को क्या समझाया |
अब तो वोह दोपहर में भी नहाने लगी हैं |
समणी जी भी चकित !
ये क्या हुआ |
खैर.....
सास को बुलाकर उनकी खैर-तवज्जो पूछी, फिर बोली -
आपको मन्त्र बताया था, उसका जाप करती हैं ना ?
मांजी - हां ! समणी जी |
समणी जी - नहाना कम हुआ ?
मांजी - नहीं, अब तो मैं तीन बार नहाती हूँ |
समणी जी - आप क्या जाप करती हैं ?
मांजी बोली - आत्मा न्यारी, शरीर म्हारो |
( आत्मा न्यारी, शरीर म्हारो का हिंदी अनुवाद = आत्मा अलग, शरीर मेरा )

Wednesday, August 1, 2012

ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति,

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ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति, ॐ शान्ति....

व्यवहार में दृढ़ता लायें !!!

व्यवहार मे ढृडता कैसे लाए
व्यवहार मे ढृडता लाने का अर्थ यह कताई नही है कि आप दुसरो पर चिल्‍लाएं, रोब जमाएँ, गुस्सा करें, दोष लगाएं या उन्हे भयभीत करें । दृढ होने का अर्थ है कि आप अपने पक्ष मे खडे हैं और साथ ही दुसरों के अधिकारो का भी हनन नही कर रहे अर्थात स्पष्‍ट शब्दों मे अपनी बात कहना या सब के सामने रखना। यह आपकी भावनाओं, इच्छाओं, व विचारों का ईमानदार प्रस्तुतिकरण होता है। इसे प्राय: आपके आत्म-सम्मान व आत्म-छवि से भी जोडा जाता है।

बचपन मे ही हमारा निजी रवैया ढंग विकसित हो जाता है। उसपर हमारे परिवार, माहौल, और यारो-दोस्तो का भी असर पडता है। यदि बचपन मे आपको बडे अनुशासन मे रखें तो हो सकता है आप उन्ही विचारो को जीवन मे आगे चल कर पेश करें।


अपने व्यवहार मे दृढ़ता लाने के लिए नकारात्मक भाषणो व विचारो से बचना चाहिए, जैसे " हो सकता है, मै गलती पर था या क्या तुम मेरे लिए ऐसा नही करोगे?" ऐसे वाक्यो से आपकी दृढ़ता टूटती है। जब भी आप किसी बात के लिए 'ना' कहना चाहे तो स्पष्ट शब्दो मे कहें । उस समय शर्मिंदा हो कर या यह सोच कर कि सामने वाला नाराज़ होगा, माफी मागने की जरुरत नही है।

कई बार दृढता और आत्म-सम्मान की कमी को आपस मे जोड कर देखा जाता है । आत्म-सम्मान की कमी होने से इंसान अपने आप को हीन महसूस करता है और वह सब के सामने बोल नही पाता। यह मनुष्य को कई तरह से प्रभावित करती है । कई लोग इसकी वजह से गुस्सैल और आक्रामक हो जाते है । यही बर्ताव उन्हे और भी बुरा बना देता है । कुछ मामलों मे बीती बातें याद करके, दृढता अपनाने से हिचकते हैं क्योकि वह दुसरो को नाराज़ नही करना चहते।

यदि आपने दृढ रवैया नही अपनाया तो आपके साथ या नीचे काम करने वाले आपकी योग्यताओ व रवैये को गंभीरता से नही लेगें । यदि मीटिगं आदि मे आपने दृढता से अपना पक्ष नही रखा या दुसरो की अप्रसंन्नता के भय से अपना मत व्यक्त नही किया तो बाँस को आपकी योग्यता पर संदेह होने लगेगा।

इस तरह से दूसरे लोग आसानी से आपसे फायदा उठा सकते हैं और आपकी योग्यता पर संदेह कर सकते है। कुछ लोग बिना किसी वजह के ही माफी माँगते रह्ते है। यह उनकी अपनी शक्तिहीनता का संकेत होता है। जब तक आपने कोई गलती नही की, तो केवल एक 'साँरी' आपको दोषी बना सकता है। किसी भी परेशानी मे अपने परिवार व दोस्तो की मदद लें । दायित्व व परिस्थितियो से मुँह न मोडें। लगातार अभ्यास से अपने भीतर दृढता पैदा करें। यदि आप कही दृढता नही दिखा पाते तो शर्मिन्दा होने की बजाए अपने-आपसे वादा करें कि आप अगली बार ऐसा नही होने देंगे।

मनचाहा फल मिले या नही, अपने आपको प्रोत्साहित करते रहें। बेचैनी और व्याकुलता से बचें। अतीत से छूट्कर जीवन की नई यात्रा मे उसका साथ दें। अपने हृदय से सारी घृणा निकाल कर इसे प्रेम से लबालब भर दे, हालाकि यह इतना आसान नही है परन्तु लगातार प्रयास से संभव है। ऐसा करने पर ही आप स्वंय को मुक्‍त अनुभव कर पाएगे।

आप जब भी अपना तर्क प्रस्तुत करें तो मरियल स्वरों ने कहने के बजाए पूरे दम खम से अपनी बात कहें । बात करते-करते जहां वाक्य खत्म होने वाला हो वहां अपने स्वर को सम पर ले आएँ। किसी से बात करते समय बार-बार सिर न हिलाए, ज़रुरत से ज्यादा न मुस्कुराएँ, अपनी गर्दन एक ओर न झुकाए और न ही अपनी आंखे फेरें, सीधे नेत्रो का संपर्क बना रहे। गरिमामयी, आरामदायक मुद्रा मे बैठे । ध्यान रहे कि आपके चेहरे के भाव आपकी बात से मेल खानी चाहिए। दुसरो की बात को ध्यान से सुने व उन्हे ऐहसास दिलाएँ कि आप उन्हे सुन रहे है। यदि कोई स्पष्‍टीकरण चाहते है तो प्रश्‍न पूछे। अपनी शक्ति को कम न करें। जब भी आप बात करें तो ध्यान रहे कि आपकी पूरी बात स्पष्‍ट्ता से सामने वाले तक पहुँच रही है या नही?

Monday, July 30, 2012

सफलता के सूत्र

सफलता के लिए जो पहली बाधा है - वह है निराशा |

सफलता के लिए दूसरी बाधा है - पुरुषार्थहीनता |
क्षमता हैं पर करते नहीं, आलस्य, प्रमाद का जीवन न् जीयें |

सफलता का तीसरा सूत्र है - धैर्य !
जिन-जिन व्यक्तियों ने धैर्य रखा, आगे बढ़ गए;
जिन्होंने उतावलापन किया, पिछड़ गए |
जल्दबाजी कभी न् करें |

सफलता का चौथा सूत्र है - व्यवहार-कौशल |
गुरुदेव तुलसी ने कहा भी कि महाप्रज्ञ जी की रूचि ध्यान में है, एकांत में है;
फिर भी व्यवहार कुशलता का जीवन जिया |
व्यक्ति कितना भी जानकार क्यों ना हो, यदि व्यवहार-कुशल
( आज की भाषा में Emotional Intelligency कह सकते हैं )
नहीं तो कुछ नहीं कर पाता |






संघ और हमारा दायित्व

संघ और हमारा दायित्व - १
व्यक्ति व्यक्ति है और संघ संघ है |
संघ का अपना महत्व होता है |
संघ-हित के सामने व्यक्ति-हित गौण होता है |
जो व्यक्ति संघ के प्रति श्रद्धाशील है,
वह वैयत्तिक आलोचना को फिर भी सहन कर सकता है,
पर संघ की आलोचना कभी नहीं सुन सकता |
संघ पर आक्षेओ-प्रक्षेप होते रहें और
संघ के सदस्य कहलानेवाले मूक भाव से सुनते रहें,
इसे मैं संघीय आस्था की कमी और दायित्वहीनता की बात मानता हूं |
कुछ लोगों का तर्क है कि
प्रतिवाद करने की हमारी नीति नहीं है |
आलोचना का प्रत्युत्तर देकर हम अपनी सहनशीलता को खोना नहीं चाहते |
मेरी दृष्टि में यथोचित प्रतिवाद असहनशीलता का द्दोतक नहीं है |
पर प्रतिवाद की क्षमता यदि न भी हो तो कम-से-कम असहयोग तो प्रदर्शित कर ही देना चाहिए |
एक व्यक्ति निंदा नहीं करता,
पर निंदा करनेवालों के पास बैठता है,
उन्हें सुनता है तो मैं उसे निंदक का सहायक मानता हूं |
अन्यथा वफादार श्रावक अपने संघ की निंदा सुनकर चुप कैसे रह सकता है ?
- गणाधिपति गुरुदेवश्री तुलसी
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संघ और हमारा दायित्व - २
आचार्य भिक्षु के समय चंदू और वीरां नाम की दो साध्वियां हुई हैं |
साधना के अयोग्य समझकर आचार्य भिक्षु ने उन्हें संघ से अलग कर दिया |
आज तक का इतिहास बताता है कि 
संघ से अलग होनेवालों ने जी भरकर संघ की निंदा की है |
चंदू और वीरां भी इसका अपवाद कैसे बन सकती थी ?
उन्होंने पीपाड़ के बाज़ार में खड़े होकर संघ और आचार्य भिक्षु की आलोचना शुरू की |
सैकड़ों व्यक्ति इकट्ठे हो गए |
आचार्य भिक्षु को इस बात का पता चला कि
संघ की अवहेलना की जा रही है तो वे बैठे न रह सके |
वृक्ष की ओट में आकर खड़े हो गए और
चंदू, वीरां की आक्षेपात्मक बातों को सुनने लगे |
सुनते-सुनते के सहसा चबूतरे पर खड़े हुए और बोले --
" भाइयों ! मेरी एक बात सुनो |"
एकाएक स्वामीजी को देखकर सब सहम गए |
चंदू, वीरां के तो वहां पर पैर भी न टिक सके |
स्वामीजी ( आचार्य भिक्षु ) ने कहा -

" ये चंदू और वीरां दोनों जी भरकर निंदा कर रही हैं |
इस विषय में मुझे कुछ भी नहीं कहना है,
पर इन दोनों की प्रकृति से मैं आपको अवगत कर देना चाहता हूं |
स्वामीजी ( आचार्य भिक्षु ) ने कहा -
" ये चंदू और वीरां दोनों जी भरकर निंदा कर रही हैं |
इस विषय में मुझे कुछ भी नहीं कहना है,
पर इन दोनों की प्रकृति से मैं आपको अवगत कर देना चाहता हूं,
ताकि आप धोखे में न रहें |
चंदू और वीरां दोनों ही पहले स्थानकवासी सम्प्रदाय में दीक्षित थी |
एक बार इनकी गुरुणी पर चरित्र का लांछन लगाया गया |
इन्होने दावे के साथ कहा कि
हमारी गुरुणी पर यह आक्षेप सर्वथा निराधार है |
सूरज में कहीं रंज हो तो हमारी गुरुणी के चरित्र में दोष हो |
अपनी गुरुणी पर इतना विश्वास प्रकट करनेवाली चंदू, वीरां ने बाद में
अपनी गुरुणी को दोषी ठहराया और
लाल कपड़े पहनाकर उसे पुनः दीक्षा दी |
कुछ वर्षों बाद वहां से अलग होकर मेरे पास दीक्षित हुई |
मैंने इनकी प्रकृति सुधारने का बहुत प्रयत्न किया |
पर आखिर इनमें कोई परिवर्तन न देखकर मैंने इन्हें संघ से अलग कर दिया |"
स्वामीजी ( आचार्य भिक्षु ) ने ऐसा क्यों किया ?

- गणाधिपति गुरुदेवश्री तुलसी 
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संघ और हमारा दायित्व - ३ 
स्वामीजी ( आचार्य भिक्षु ) ने ऐसा क्यों किया ?
इसलिए किया कि वे संघ के नेता थे |
एक अधिकारी होने के नाते ऐसा करना उनका कर्त्तव्य था |
वि.स. २०११ में जब मैं बंबई में था,
मैंने एक नीति निर्धारित की थी कि
गाली-गलौज व अश्लील आलोचना का उत्तर न हमने आज तक दिया है
और न ही देना है,
पर यदि उच्चस्तर की आलोचना होगी तो उसका हम उत्तर अवश्य देंगे |
अन्यथा सिद्धांत की सत्यता जनता तक नहीं पहुंच सकेगी |
मैंने अपनी इस नीति को क्रियान्वित किया |
- गणाधिपति गुरुदेवश्री तुलसी






Wednesday, July 25, 2012

मिथ्यात्व व् उसके भेद


मिथ्यात्व -  
महावीर भगवान् ने बंधन किसे कहा है ?
और कैसा ज्ञान प्राप्त करने से बंधन का नाश हो सकता है ?
सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि
१. बंधन क्या है ?और
२.बंधन से मुक्त होने का उपाय क्या है ?
बंधन का यथार्थ स्वरुप समझे बिना उससे मुक्ति नहीं प्राप्त की जा सकती |
बंधन का प्रधान कारण मिथ्यात्व है |
मिथ्यात्व से ग्रस्त जीव न तो अपने वास्तविक स्वरुप को समझ पाता है, न बंधन को समझ पाता है
और
न उससे छुटकारा पाने के उपायों को ही समझता है |
अतः सबसे पहले मिथ्यात्व को समझना और उसका त्याग करना आवश्यक है |
१. अनित्य को नित्य मानना २. अशुद्ध को शुद्ध मानना ३. दुःख को सुख और ४. आत्मा को अनात्मा मानना ही मिथ्यात्व है | मिथ्यात्व ३ प्रकार का है - १. अनादि अनंत - जिस मिथ्यात्व की आदि नहीं है और अन्त नहीं है | अभव्य जीवों को यह मिथ्यात्व होता है | अनंत भव्य जीव भी ऐसे हैं, जो अनंतानंत काल से निगोद में पड़े हुए हैं | वे एकेन्द्रिय पर्याय को छोड़कर द्वीन्द्रिय पर्याय भी प्राप्त नहीं कर सके हैं और भविष्य में भी नहीं प्राप्त कर सकेंगे | २. अनादि सपर्यवसित -अनादिकाल से मिथ्यात्वी होने के कारण जिन जीवों के मिथ्यात्व की आदि तो नहीं है, पर सम्यक्त्व प्राप्त करने के योग्य होने के कारण जो मिथ्यात्व का अन्त कर डालते हैं | ३. सादि सपर्यवसित - जो मिथ्यात्व एक बार नष्ट जाता है, किन्तु फिर उत्पन्न हो जाता है और यथाकाल फिर नष्ट हो जायेगा |

मिथ्यात्व के स्वरुप को समझने के लिए उसके २५ भेदों को समझ लेना आवश्यक है |
१. आभिग्राहिक मिथ्यात्व -
कुछ लोग समझते हैं कि जो बात हमारे ध्यान में आये, वही सच्ची और बाकी सब झूठी |
ऐसे व्यक्ति यह सोचकर कि हमारी श्रद्धा भंग न हो जाए - सदगुरु का समागम भी नहीं करते |
जिनेंश्वर भगवान् की वाणी का श्रवण-मनन भी नहीं करते, सत्य-असत्य का निर्णय भी नहीं करते |
वे हठाग्रही बने रहकर अपने माने हुए और रूढि से चले आने वाले मार्ग पर ही चलते रहते हैं |
अगर उन्हें कोई सत्य धर्म को समझाना चाहे तो वे कहते हैं - " हम अपने बाप-दादाओं का धर्म कैसे छोड़ सकते हैं |" वास्तव में वे जैसे बाप-दादाओं की धर्म परंपरा से चिपटे रहते हैं,
वैसे संसार की दूसरी बातों से नहीं चिपके रहते |
बाप-दादा निर्धन हों, तो क्या आपको धन प्राप्त करने का उद्योग नहीं करना चाहिए ?
और
यदि अनायास धन प्राप्त हो जाए तो क्या फेंक देना चाहिए ?
सिर्फ धर्म के विषय में नाहक ही बाप-दादाओं को बीच में ले आते हैं और मिथ्या मत का त्याग नहीं करते |
कुछ लोग कहते हैं - हमारे धर्म में बड़े-बड़े विद्वान हैं, धनवान हैं और सत्तावान हैं | वे सभी क्या मूर्ख हैं ? परन्तु सच बात तो यह है कि मोहनीय कर्म की शक्ति बहुत प्रबल है | इस के प्रभाव के कारण सच्चे धर्म की परीक्षा नहीं हो सकती | आत्मा अनादिकाल से पाप से परिचित है, इस कारण बिना सिखाये पाप सीख जाता है | जन्मते ही बच्चे को रोना कौन सिखाता है ? जन्मते ही बच्चे को कौन दूध पीना सिखाता है ? अनुभव के कारण बिना सिखाये ऎसी बातें याद आ जाती है और इनका आचरण करने लगता है | ऐसा समझकर आग्रही न बनकर और विद्वान कहलाने वालों की तरफ न देखकर अपनी आत्मा के कल्याण-अकल्याण की ओर दृष्टि रखकर सत्य धर्म में प्रवृत्त होना चाहिए |
२. अनाभिग्राहिक मिथ्यात्व - कुछ लोग हठाग्रही तो नहीं होते, पर उनमें धर्म-अधर्म, निजगुण-पर गुण, सत्य-असत्य को परखने की बुद्धि ही नहीं होती | उनमें जन्म से एक प्रकार की मूढ़ता होती है, जिसके कारण वे सत्य धर्म और पाखण्ड धर्म का निर्णय नहीं कर सकते | जैसे - हलुवा आदि मधुर पदार्थों में कूड़छी घूमती तो है, मगर अपने जड़ स्वभाव के कारण स्वाद की परीक्षा नहीं कर सकती | उसी प्रकार से ये प्राणी बड़ी उम्र के हो जाने पर भी धर्म के सम्बन्ध में यही उत्तर देते हैं - " हमें पक्षपात में पड़ने की क्या आवश्यकता है ? किसी के धर्म को क्यों बुरा कहना चाहिए ? कौन जाने कौन-सा धर्म सच्चा है और कौन-सा धर्म झूठा है ? हम तो सभी देवों को और गुरुओं को पूजेंगे, वंदना करेंगे, इसी से हमारा उद्धार हो जाएगा |"
३. आभिनिवेशिक मिथ्यात्व - कुछ व्यक्ति अपनी धर्म मान्यता और कल्पनाओं का मिथ्यापन समझ लेते हैं, किन्तु मान-अभिमान के कारण अभिनिवेश का त्याग नहीं करते | कोई संत उन्हें समझाते हैं, तो कुतर्क करते हैं | क्रोधित हो जाते हैं | इस प्रकार अनंत संसार बढ़ा लेते हैं | अपनी आत्मा का हित चाहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि मिथ्या मान्यता का त्याग करे और जो मान्यता सच्ची लगे उसे स्वीकार करे |
४. सांशयिक मिथ्यात्व--कुछ श्रावक ऐसे भी होते हैं,जो श्रीवीतराग-वाणी की कोई-कोई गहन बात,बुद्धि की कमी के कारण या अन्य धर्म वालों से अथवा आधुनिक पश्चिमी मान्यताओं से विरुद्ध मालूम पड़ने से जैन मत पर शंका करने लगते हैं |
वे कहते हैं -- कैसे मान लिया जाए कि यह बात सच्ची है ?या तो भगवान ने मिथ्या प्ररुपणा की हैया आचार्यों ने मिथ्या लिखा है !
उनका मन ऐसे डांवाडोल हो जाता है |वे यह नहीं सोचते कि वीतराग मिथ्या प्ररुपणा किसलिए करेंगे ?अतएव शास्त्र की कोई बात अगर समझ में न आवे तो विचारशील पुरुष को अपनी बुद्धि की मंदता समझनी चाहिए,किन्तु तीर्थंकर भगवान या आचार्यों का तनिक भी दोष नहीं समझना चाहिए |
समुद्र का सारा पानी लोटे में नहीं समा सकताउसी प्रकार अनंत ज्ञानी प्रभु के वचन अल्पज्ञ और छद्मस्थकी समझ में पूरी तरह कैसे आ सकते है ?इस प्रकार विचार करके सांशयिक मिथ्यात्व का त्याग करना चाहिए |


५. अनाभोग मिथ्यात्व -
अनजान में, अज्ञान के कारण अथवा भोलेपन के कारण अनाभोग मिथ्यात्व लगता है |
यह मिथ्यात्व एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और बहुत से संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को लगता है |
उपर्युक्त चार मिथ्यात्व वाले जीवों की अपेक्षा अनाभोग मिथ्यात्व वाले जीव अधिक हैं |
६. लौकिक मिथ्यात्व - ९
जैन मत के अलावा किसी अन्य मत को मानना,
लोकरुढियों में धर्म समझना लौकिक मिथ्यात्व कहलाता है |
इसके ३ भेद हैं --
१. देवगत लौकिक मिथ्यात्व
२. गुरुगत लौकिक मिथ्यात्व
३. धर्मगत लौकिक मिथ्यात्व
देवगत लौकिक मिथ्यात्व -
सम्पूर्ण ज्ञान और परिपूर्ण वीतरागता सच्चे देव के लक्षण हैं |
यह लक्षण जिनमें न् पाए जाएं;
उन देवों को देव मानना देवगत मिथ्यात्व है |
इन देवों को लौकिक देव मान सकते हैं |
गुरुगत लौकिक मिथ्यात्व -
गुरु ( साधू ) का नाम धराया पर गुरु के लक्षण-गुण जिन्होंने प्राप्त नहीं किए,
ऐसे जोगी, सन्यासी, फ़कीर, बाबा, साईं आदि जो हिंसा करते हैं,
रात्रि भोजन करते हैं, गांजा, अफीम, तमाखू आदि पीने की धुन में मस्त रहते हैं |
तिलक, माला, वस्त्र, आभूषण आदि से शरीर का श्रृंगार करते हैं |
रंग-बिरंगे वस्त्र धारण करते हैं, वाहन पर बैठते हैं, यहां तक कि मांस-मदिरा का भी सेवन करते हैं |
अनेक प्रकार के पाखण्ड करके पेट भराई करते हैं |
ऐसे गुरु को मानना-पूजना गुरुगत लौकिक मिथ्यात्व है |
शास्त्रों में ३६३ प्रकार के पाखण्ड-मत बतलाये गए हैं |
उनका स्वरुप समझ लेने से भली-भांति समझ में आ जाएगा |
७. लोकोत्तर मिथ्यात्व -
इसके ३ भेद हैं -
१. लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व
२. लोकोत्तर गुरुगत मिथ्यात्व
३. लोकोत्तर धर्मगत मिथ्यात्व
लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व -
जो तीर्थंकर कहलाता हो, किन्तु जिसमें तीर्थंकर के लेश मात्र भी गुण न् हों, जो १८ दोषों से भरा हुआ हो, ऐसे पुरुष को तीर्थंकर ( देव ) मानना |
लोकोत्तर गुरुगत मिथ्यात्व -
जैन साधू का नाम और वेष धारण करनेवाले,
किन्तु साधुपन के गुणों से रहित साधू को धर्मगुरु मानना |
लोकोत्तर धर्मगत मिथ्यात्व -
जैन धर्म भव-भव में लोकोत्तर कल्याणकारी है |
इस धर्म का सेवन करने से निराबाध और अक्षय मोक्ष-सुख की प्राप्ति होती है |
फिर भी इस सुख की उपेक्षा करके इस लोक सम्बन्धी सुख प्राप्त करने के लिए
धर्म का आचरण करना |
८. कुप्रावचनिक मिथ्यात्व -
इसके भी ३ भेद हैं -
देवगत, गुरुगत, धर्मगत |
देवगत - हरि, हर, ब्रह्मा आदि अन्य मत के देवों को मोक्ष प्राप्त करने के लिए मानना-पूजना |
गुरुगत - बाबा, जोगी आदि को सच्चा गुरु मानकर मोक्ष प्राप्ति के लिए उनकी सेवा, भक्ति, पूजा, श्लाघा करना |
धर्मगत - अन्य मत की संध्या, स्नान, होम, जप आदि क्रियाओं को मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से अंगीकार करना |
 ९. जिनवाणी से न्यून प्ररूपणा-मिथ्यात्व -
कोई-कोई मानते है कि आत्मा तिल या सरसों के बराबर है |
कोई अंगूठा के बराबर कहते हैं |
यह सब प्ररूपणा न्यून (ओछी) प्ररूपणा है |
अपने विचार से मेल न् खाने वाले शास्त्र-वचनों को उड़ा देना,
पलट देना, या उसका मनमाना अर्थ करना,
यह सब भी मिथ्यात्व में शामिल है |
१०. जिनवाणी से अधिक प्ररूपणा-मिथ्यात्व -
श्री वीतराग भगवान द्वारा शास्त्र से अधिक प्ररूपणा करना भी मिथ्यात्व है |
११. जिनवाणी से विपरीत-प्ररूपणा-मिथ्यात्व -
केवलज्ञानी वीतराग भगवान द्वारा प्रणीत शास्त्र से विपरीत प्ररूपणा करना विपरीत मिथ्यात्व है |
१२. धर्म को अधर्म श्रद्धना-मिथ्यात्व -
वीतरागप्रभू ने जो धर्म बताया है - वही सत्य है |
१३. अधर्म को धर्म मानना-मिथ्यात्व -
धर्म के लक्षण से जो विपरीत है, वह अधर्म है |
उसे धर्म समझना मिथ्यात्व है |
१४. साधू को असाधु मानना-मिथ्यात्व -
शास्त्र में जो गुण साधुओं के बताए हैं,
उन गुणों से युक्त साधुओं को असाधु मानना मिथ्यात्व है |
१५. असाधु को साधू मानना-मिथ्यात्व -
साधू के गुणों से रहित कोरे भेषधारक, पापों का सेवन करनेवाले, कराने वाले और
अनुमोदना करनेवाले, निंदक, लालची व्यक्तियों को साधू मानना मिथ्यात्व है |
१६. जीव को अजीव श्रद्धना-मिथ्यात्व -
शास्त्रों में जीव के जो लक्षण बताएं हैं उनसे युक्त जीवों को जीव न मानना मिथ्यात्व है |
१७. अजीव को जीव श्रद्धना-मिथ्यात्व -
यह जगत जड़ और चेतन दो तत्वों से युक्त हैं,
जड़ को जीव समझना भी मिथ्यात्व ही है |
१८. सन्मार्ग को उन्मार्ग श्रद्धना-मिथ्यात्व -
जो मुक्ति के मार्ग हैं, उन्हें कर्म-बंध का, संसार में परिभ्रमण का मार्ग कहना मिथ्यात्व है |
१९. उन्मार्ग को सन्मार्ग श्रद्धना-मिथ्यात्व -
जिस कार्य में हिंसा हो उसको धर्म मानना भी मिथ्यात्व है |
२०. रुपी को अरूपी श्रद्धना-मिथ्यात्व -
वायुकाय आदि कितने ही रुपी पदार्थ हैं, किन्तु सूक्ष्म होने से दृष्टिगोचर नहीं होते |
इस कारण उन्हें अरूपी कहना मिथ्यात्व है |
२१. अरूपी को रुपी श्रद्धना-मिथ्यात्व -
सिद्ध भगवान आदि अरूपी द्रव्य के गुणों से युक्त हैं, उन्हें रुपी मानना इत्यादि प्रकार से अरूपी को रुपी कहना मिथ्यात्व है |
२२. अविनय मिथ्यात्व -
श्री जिनेन्द्र भगवान के, वचनों को उत्थापना, उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना, तपस्वी, वैरागी, साधू-साध्वी, श्रावक, श्राविका आदि उत्तम पुरुषों की निंदा करना, कृतघ्न होना,
अविनय मिथ्यात्व है |
२३. आशातना मिथ्यात्व -
आशातना मिथ्यात्व के ३३ भेद हैं |
जैसे - अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, साधू, साध्वी, श्रावक, श्राविका आदि की आशातना करना |
२४. अक्रिया मिथ्यात्व -
अक्रियावादी कहता है कि आत्मा को पुण्य-पाप की क्रिया नहीं लगती |
ऐसे व्यक्ति अक्रिया मिथ्यात्व की स्थापना करते हैं |
२५. अज्ञान मिथ्यात्व -
जिसकी आत्मा में मिथ्यात्व है, उसकी आत्मा में अज्ञान होता ही है |
मिथ्यात्व-मोहनीय के उदय से सब विपरीत ही लगता है |
अभी हूंडावसर्पिणी काल में मिथ्यात्व का जोर बढ़ा हुआ दिखाई देता है |

जिधर देखें, उधर मान-सम्मान की ही बीमारी लगी हुई है |
वाक्-आडम्बर की कला क्या प्राप्त हुई कि कुबुद्धि द्वारा, कुकल्पनाएं करके आप्त पुरुषों की निंदा की जाती है |
भोले लोग उनके माया जाल में या किसी प्रकार के लालच में फंस जाते हैं |
ऐसे लोग अज्ञान मिथ्यात्व फैलाते हैं |

अज्ञान के कारण मिथ्यात्व में फंसे हुए लोगों को देखकर श्रीजिनशासन के अनुयायियों को सावधान रहना चाहिए |
बड़े पुण्योदय से प्राप्त हुए सम्यक्त्व-रत्न को संभाल कर रखना चाहिए |
मिथ्यादृष्टि का समस्त ज्ञान अज्ञान ही होता है |

अज्ञानवादी ज्ञान की निंदा करके अज्ञान को श्रेष्ठ और हितकर बताते हैं |
भोले लोगों को ज्ञान से वंचित रखते हैं |
















Monday, July 23, 2012

अध्ययन क्यों ?

अध्ययन क्यों ?
----------------
मैं ज्ञान प्राप्ति के लिए अध्ययन करूँगा |
मैं एकाग्रता बढाने के लिए अध्ययन करूँगा |
मैं आत्मस्थ बनने के लिए अध्ययन करूँगा |
मैं स्वयं आत्मस्थ बन कर 
दूसरों को आत्मस्थ बनाने के लिए अध्ययन करूँगा |
~ दशवैकालिक सूत्र से

Sunday, July 22, 2012

उपयोगिता


उपयोगिता

एक राजा था। 
उसने आज्ञा दी कि संसार में इस बात की खोज की जाय कि कौन से जीव-जंतु निरुपयोगी हैं। 
बहुत दिनों तक खोज बीन करने के बाद उसे जानकारी मिली कि संसार में दो जीव जंगली मक्खी और मकड़ी बिल्कुल बेकार हैं। 
राजा ने सोचा, क्यों न जंगली मक्खियों और मकड़ियों को ख़त्म कर दिया जाए।

इसी बीच उस राजा पर एक अन्य शक्तिशाली राजा ने आक्रमण कर दिया, 
जिसमें राजा हार गया और जान बचाने के लिए राजपाट छोड़ कर जंगल में चला गया। 
शत्रु के सैनिक उसका पीछा करने लगे। 
काफ़ी दौड़-भाग के बाद राजा ने अपनी जान बचाई और थक कर एक पेड़ के नीचे सो गया। 
तभी एक जंगली मक्खी ने उसकी नाक पर डंक मारा जिससे राजा की नींद खुल गई। 
उसे ख़याल आया कि खुले में ऐसे सोना सुरक्षित नहीं और वह एक गुफ़ा में जा छिपा। 
राजा के गुफ़ा में जाने के बाद मकड़ियों ने गुफ़ा के द्वार पर जाला बुन दिया।

शत्रु के सैनिक उसे ढूँढ ही रहे थे। 

जब वे गुफ़ा के पास पहुँचे तो द्वार पर घना जाला देख कर आपस में कहने लगे, "अरे! चलो आगे। 
इस गुफ़ा में वह आया होता तो द्वार पर बना यह जाला क्या नष्ट न हो जाता।"

गुफ़ा में छिपा बैठा राजा ये बातें सुन रहा था। शत्रु के सैनिक आगे निकल गए। 

उस समय राजा की समझ में यह बात आई कि संसार में कोई भी प्राणी या चीज़ बेकार नहीं। 
अगर जंगली मक्खी और मकड़ी न होतीं तो उसकी जान न बच पाती। 
इस संसार में कोई भी चीज़ या प्राणी बेकार नहीं। 
हर एक की कहीं न कहीं उपयोगिता है।

Saturday, July 21, 2012

माया / मित्रता

जहां माया है,
वहां मैत्री नहीं हो सकती |
मंत्री ने राजा के साथ विश्वासघात किया |
मित्र ने मित्र के साथ विश्वासघात किया |
- इतिहास में अनेक कथाएँ मिलती हैं |

थायराइड

थायराइड -
एक बहिन ने कहा - उसकी थायराइड ग्रंथि बहुत सक्रिय है |
वह परेशान थी |
उसे ब्लू रंग का ध्यान कराया गया |
उसकी सक्रियता कम हुई |
साथ-साथ बहिन कि परेशानी भी कम हो गयी |
हमारे शरीर में जितने भी ग्लैंड्स है,
उन सबका अपना रंग है |
जितने चैतन्य केन्द्र हैं,
उन सबका अपना एक रंग है |
ये सारे रंग प्रभावित करते हैं |
~ आचार्य श्री महाप्रज्ञजी की पुस्तक " अपने घर में पृष्ठ संख्या ६५ " से

अपनी गालियाँ रखो ...अपने पास

अपनी गालियाँ रखो ...अपने पास
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भगवान् बुद्ध के पास एक आदमी आया 
और 
बड़ी देर तक अपशब्दों की बौछार करता रहा |
आखिर गालियाँ देते-देते थक गया |
दस गाली के बदले अगर एक गाली उत्तर में मिल जाए तो 
अगली बीस गालियों से स्वयं को लैस कर लेता है |
जोश दुगुना.....
---
उस आदमी ने बुद्ध से कहा -
" क्या बात है ?
तुम्हारी जीभ गायब हो गयी क्या ?
जवाब क्यों नहीं देते ?"
बुद्ध ने कहा -
" मैंने तुम्हारे अपशब्द स्वीकार ही नहीं किये तो क्या जवाब दूं ?"
उस व्यक्ति ने कहा -
" स्वीकार न करने का मतलब ?"
---

बुद्ध ने कहा -
" दूसरों को भेंट देने की प्रथा तुम्हारे यहां भी होगी |
अगर एक थाल मिठाई भर कोई तुम्हारे पास जाता है
और
तुम् स्वीकार नहीं करते तो वह थाल कहां जाएगा ?"
गाली देने वाले ने कहा -
" जाएगा कहाँ, वह तो उसी के पास रह जाएगा,
जो देने आया था |"
बुद्ध बोले -
" तुम्हारी गालियाँ भी तुम्हारे पास ही रह गई,
क्योंकि मैंने उसे स्वीकार नहीं किया |"

Saturday, July 14, 2012

चंचल मन


* मन संवेदनाओं के साथ जुड़ने से चंचल बनता है |
* आसक्ति के साथ जुडकर मन चंचल बनता है |
यदि आसक्ति को हटा दें तो चंचलता अपने आप कम हो जायेगी |
* पदार्थ के साथ मन का जुड़ाव होने से,
उसकी बार-बार स्मृति होने से,
कल्पना करने से और
उसी विषय में लगातार चिंतन करने से मन चंचल हो जाता है |
पदार्थ जगत की मूर्च्छा ने और पदार्थ की अनुरक्ति ने मन को चंचल बना रखा है |
चंचलता मुख्य समस्या नहीं है |
मुख्य समस्या है - अनुराग |
जितनी-जितनी आसक्ति,
उतनी-उतनी मन की चंचलता |
जिस व्यक्ति के मन में वैराग्य है,
वह कभी नहीं कहेगा -
" मन बहुत चंचल है "
मन की चंचलता और समस्या उस व्यक्ति के लिए,
जो पदार्थ के साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित कर रहा है |
जितने भी मानसिक (Mental) केस हैं और
जितने भी साइक्रियाटिक के प्रयोग हैं,
वे इसलिए हैं कि वे इस सच्चाई को जानते हैं कि
मन की समस्या किसी दुसरे के द्वारा पैदा की जा रही है |
समस्या पैदा कर रहा है -
" रागात्मक अनुबंध |"
जब गौतम स्वामी से केशी स्वामी मिलते हैं तो पूछते हैं -
" मन एक तेज घोड़ा है |
बहुत साहसी है, भयंकर भी है |
वेग से भागते हुए इस घोड़े को तुमने कैसे वश में किया ?"
गौतम स्वामी बोले -
" केशी ! तुम ठीक कहते हो |
मन तुरंग की तरह चंचल है |
मैंने उसे श्रुत की वल्गा या लगाम से अपने वश में किया है |
वह अब मेरे अधीन है |
जैसे उसे चलाता हूं, वैसे ही चलता है |
परमात्मा का प्रकाश मिलता है ?
स्वाध्याय और ध्यान --
इस संपदा के द्वारा परमात्मा का प्रकाश फैलता है |
ध्यान का बड़ा महत्व है, किन्तु स्वाध्याय का भी कम नहीं है |
एक अपेक्षा के आधार पर एक आचार्य ने तो यहां तक लिख दिया -
स्वाध्याय के समान कोई तपकर्म न हुआ और न होगा |
उपवास करनेवाले भी ध्यान दें कि
उपवास तप है, किन्तु बाह्य तप है, आभ्यंतर तप नहीं |
आभ्यंतर तप है -
स्वाध्याय |
कोरा तप हो, स्वाध्याय न हो तो ऐसा तप अधूरा है |
स्वाध्याय तप को पूर्णता प्रदान करता है |
कोरा उपवास मात्र लंघन है |
उपवास का अर्थ है - आत्मा के समीप रहना |
आत्मा के समीप तभी रहा जा सकता है,
जब उपवास के साथ स्वाध्याय का योग जुड़ता है |

- आचार्य श्री महाप्रज्ञजी की " महाप्रज्ञ ने कहा..भाग - २० " से




Wednesday, July 11, 2012

क्रोध - एक कतलखाना


" क्रोध - एक कतलखाना "
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क्रोध एक कतल खाना है |
यह आपकी आत्मा के टुकड़े-टुकड़े कर देता है |
कितनी भी आत्मा को निर्मल रखने की कोशिश करें,
लेकिन क्रोध से आत्मा टूट जाती है |
-------------------------------
कोई स्वयं की ताक़त बताए,
चाहे कुछ भी कहे लेकिन आप शांत रहें,
क्रोध मत करें |
चाहे वो यह विचारे कि उसकी ताक़त की जीत हुई,
लेकिन वास्तव में तो आपकी आत्मा की शक्ति और भक्ति की जीत हुई है
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अपरम्पार क्रोध, जो चंडकौशिक के ज़हर से भी ज्यादा होता है,
एक शब्द बोलते ही जहां अनेक शब्द आमने-सामने बोलते हों,
वहां आत्मा कहां से छूटे ?
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यदि अरहंत की वाणी की एक अंश जितनी शक्ति ले लें,
तो उद्धार होगा |
कुछ भी हो ऐसा नहीं बोलूं |
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कषाय की ताक़त नहीं,
सहन शक्ति की ताक़त आपको प्रकाश देगी |
सहनशीलता का अमृत घूंट पीने का है,
वह पीएं,
कषायों ( क्रोध, मान, माया आदि ) के पीछे पागल न बनें |
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यदि नाथ ( अरहंत ) के अंदर लीन रहकर रोक सकें तो नाथ को कह सकते हैं -

' क्रोधरूपी शत्रु कीचड़ लेकर आए थे |
हे नाथ ! क्या आपकी शीतलता कि मुझे एक भी दाग कहीं नहीं लगा,
ऐसी आपकी दया है, समभाव है, दुश्मन से प्रेम, सिर काटे तो भी शीतलता,
भगवान् की वाणी को याद करो |
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प्रभू पारसनाथ को याद करो,
८ भव तक स्वयं के सगे भाई ने दुश्मन बनकर माना फिर भी समभाव,
महावीर के कान में कीलें ठोकी,
फिर भी ध्यान में लीन,
भगवान् का जमाई भगवान् के विरुद्ध |
फिर भी ....समभाव |
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किसके लिए ?
किसके लिए क्रोध करना ?
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कषाय के कतलखाने की चाबी खोलने की मुझे क्या जरूरत ?
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शीतलता, निर्मलता के अंदर केरोसीन की बूँदें पड़े तो भी 
दियासलाई का उपयोग मत करो |
आप संसार को छोडिये,
मतलब दीक्षा नहीं, वैराग्य नहीं |
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लेकिन क्रोध, मान, माया से मुक्त रहें |
क्रोध आते ही आत्मा को शांत करें |
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जीना तो २ घड़ी,
उसमें क्रोध किसके लिए ?
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आत्मा से कहें --
तुझे जरूरत क्या है ?
तू अच्छा काम कर !
पुदगल उनका काम करें,
चाहे वेदना हो |
अमृत का घड़ा भरने में देर लगती है,
विचारते-विचारते कर्म के बंधन टूटते हैं,
रास्ता मिलता है |
क्रोध आए तब उसे धक्का मारें |
क्रोध करना ही नहीं है |

Friday, July 6, 2012

Who I am?

If I eat too much I shall get fat (the effect of my actions).
If I control my appetite then I shall not.
If I do not control my desire for possessions then I shall get greedy and unpleasant.
If I do not control my attitudes to other living creatures then I shall get violent and unpleasant.

All these things add up: all my actions and thoughts help to make the sort of person I am.

View long term

It is true that in the short term violent or greedy or dishonest people often appear to succeed in life, to reach high positions, acquire wealth and live in comfort, even though they are feared or disliked by pleasanter, more honest people.

But Jains look at the long term. 
They see that violence and greed and dishonesty build up conditions within the individual which are certain to have their effect eventually.

तप कैसे करें ?

पोरसी को कई प्रकार से कर सकते हैं.
जैसे सुबह ९ बजे आपने नाश्ता लिया फिर १ बजे लंच लेंगे
बीच में ४ घंटे का समय है उसका सदुपयोग आप १ पारसी के प्रत्याख्यान से कर सकते हैं.
पोरसी में पानी का आगार रख सकते हैं.
केवल सूर्योदय वाली पोरसी बिना पानी के करनी होती है.


पोरसी को रात में भी कर सकते है.
जैसे रात को भोजन - दूध लेकर कुल्ला कर के 
१० बजे दो पोरसी का प्रत्याख्यान ले लिया
जो तकरीबन ७ घंटे का हुआ सुबह ५ बजे तक हम वैसे भी कुछ नहीं लेते है.
छोटी- छोटी बातों का ख्याल रखते हुए हम श्रावक भी काफी धर्म कर सकते हैं.
हाँ सब में प्रत्याख्यान जरूरी है.


समणी श्री कुसुमप्रज्ञाजी ने खुलासा किया कि
उपवास में पहले दिन सूर्यास्त के पहले भोजन करना चाहिए,
फिर दुसरे दिन पूरा दिन उपवास करें,
फिर तीसरे दिन सूर्योदय के पश्चात पारणा करें.
इस प्रकार तीन सूर्य की साक्षी से शुध्ह उपवास होता है.


चरम प्रत्याख्यान -
तप का एक प्रकार होता है
इसमें सूर्यास्त के ४८ मिनट पहले भोजन- पानी बंद कर देना चाहिए.
किसी भी तपस्या में साधारण आगार रखना चाहिए,
की भूल में हो गया.


४८ मिनट के तप का खुलासा
आपने नाश्ते में १० मिनट + दोपहर के खाने में १२ मिनट + दोपहर की चाय में ७ मिनट + शाम के भोजन में १२ मिनट = कूल ३९ मिनट
बाकी पानी का समय रख लें.
पर जागरूकता रखनी पड़ेगी.
कुछ तपस्याएँ तो हर कोई कर सकता है.
१. भोजन के बाद एक घंटे का चौविहार का त्याग 
२. रात्रि भोजन का त्याग 
३.किसी प्रिय वस्तु को छोड़ने का त्याग
४.जूठन छोड़ने का त्याग
५. अपने मुंह अपनी प्रशंसा नहीं करना 
६.निंदा सुनकर भी समभाव में रहना
७.आते क्रोध को थामना.

अनुशासन कैसे ?

शरीर मेरा नहीं है,
यह भाव जितना स्पष्ट 
और
गहरा 
होगा,
उतना ही शरीर पर हमारा अनुशासन होगा
और
शरीर पर अनुशासन होने का मतलब ही है,
सब पर अनुशासन 

केवलिगम्य कर दें

कोई प्रश्न समझ में न् आये तो उसे समझने का प्रयत्न करें और 'करते रहे" |
प्रयत्न करने पर भी समझ में न् आये तो उसे 'केवलीगम्य' कर दें,
- बुद्धि से अगम्य मान कर छोड़ दें |
किन्तु खींच-तान न् करें |
~ भिक्षु स्वामी  

गदहियाजी और बरडियाजी

वीतराग - वंदना ( चौबीसी )
क्लेश निवारक पद्य 
सरदारशहर 
श्रीचन्दजी गधिया और कस्तूरचन्दजी बरडिया के घरेलु सम्बन्ध थे 
दोनों ने कलकत्ते में नया काम शुरू किया 
संयोग की बात वि. १९५१-५२-५३ तीन साल तक लगातार फार्म घाटे में चला
लोग कहने लगे " इन बरडियों का पगफेरा ही अच्छा नहीं है "
पर श्रीचंदजी दिलेर व्यक्ति थे, बोले - " एक रोटी मुझे मिलेगी तो आधी बरडियों को भी मिलेगी "
कस्तूरीचन्दजी ने किसी सयाने से सलाह मांगी
सयाने व्यक्ति ने सुझाया
" चन्द्र चंद्रोति चंद्रेति, चन्द्र चंद्रेति शीतले
चन्द्र चन्द्र-प्रभा चन्द्र, चन्द्र चन्द्र वरानने"
माला के एक मणके पर ऊपर लिखा मंत्र पढ़ें और दुसरे पर चौबीसी का यह पद्य
" प्रभु ! लीन पनै तुम ध्यावियां, पामै इन्द्रादिक नी रिद्धि हो
बलि विविध भोग सुख सम्पदा, लहै आमोसही आदि लब्धि हो "
चौबीसी के ८ वें गीत के ४ थे पद्य से
माला शुरू हुई, श्रीचन्दजी कस्तुरीचंदजी से मिलने आये
बरडिया जी बोले - " आवो भाई श्रीचंद ! कियां आयो "
श्रीचंद्जी ने कागद निकला और कहा - कलकत्ते स्यूं समाचार है, अबै देणो कोनी रह्यो ( अनुवाद - कलकत्ते से समाचार है, घाटा नहीं रहा )
कस्तूरीचन्दजी बोले - " हैं ! अब मैं मर ज्यावां तो धोखो कोनी, धर्म रो शरणों राखज्यो ! सुखी रहीज्यो " ( अनुवाद- अब मैं मर जाऊं तो अफ़सोस नहीं है, धरम की शरण रखना, सुखी रहना )
श्रीचंद्जी गली के नुक्कड़ भी नहीं पहुंचे थे कि पीछे से आवाज़ आयी - सेठा !
वापस लौटे, कस्तुरिचंदजी गुनगुना रहे थे -
" प्रभु ! लीन पने तुम ध्यावियां, पामे इन्द्रादिक नी रिद्धि हो
विविध भोग सुख सम्पदा........"

सेवा

सेवा -
१. कुछ लोग दूसरों से सेवा लेते हैं,
पर देते नहीं,
२. कुछ लोग दूसरों को सेवा देते हैं,
पर लेते नहीं,
३. कुछ लोग सेवा लेते भी हैं
और देते भी हैं,
४. कुछ लोग न सेवा लेते हैं
और न देते हैं |