Saturday, January 28, 2012

भक्तामर स्तोत्र अनुवाद के साथ


भक्तामर स्तोत्र - आचार्य श्री मानतुंग द्वारा रचित 
१.भक्तामर-प्रणत-मौलीमणि-प्रभाण
ा -
मुद्दोतकं दलित-पाप-तमोवितानम |
सम्यक प्रणम्य जिनपादयुगं युगादा -
वालम्बनं भवजले पततां जनानाम् |
अनुवाद
१.झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों
की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, 
पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, 
कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए 
प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण 
युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके 
(मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करुँगा)| 
२. यः संस्तुतः सकलवांग्मयतत्वबोधा-
दुदभूतबुद्धिपटुभि: सुरलोकनाथै: |
स्तोत्रैर्जगतत्रितयचित्तहरैरुदारै:,
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेंद्रम ||
अनुवाद
 सम्पूर्णश्रुतज्ञान से उत्पन्न हुई
बुद्धि की कुशलता से इन्द्रों के द्वारा
तीन लोक के मन को हरने वाले, 
गंभीर स्तोत्रों के द्वारा जिनकी 
स्तुति की गई है उन आदिनाथ जिनेन्द्
र की निश्चय ही मैं (मानतुंग) भी स्तुति करुँगा|
३. बुद्धया विनापि विबुधार्चितपादपीठ !
स्तोतुं समुद्दत- मतिर- विगत- त्रपोहम |
बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब -
मन्य: क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम ||
 अनुवाद
देवों के द्वारा पूजित हैं सिंहासन जिनका,
ऐसे हे जिनेन्द्र मैं बुद्धि रहित होते हुए
भी निर्लज्ज होकर स्तुति करने के लिये
तत्पर हुआ हूँ क्योंकि जल में स्थित
चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बालक को छोड़कर
दूसरा कौन मनुष्य सहसा पकड़ने की
इच्छा करेगा? अर्थात् कोई नहीं|
भक्तामर स्तोत्र 
४.वक्तुं गुणान्गुण-समुद्र शशाड्क-कान्तान् 
कस्ते क्षमः सुर-गुरु-प्रतिमोऽपि बुद्धया|
कल्पान्त-काल-पवनोद्ध-नक्र-चक्र
को वा तरीतुमलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम्
अनुवाद  
हे गुणों के भंडार! आपके चन्द्रमा के समान
सुन्दर गुणों को कहने लिये ब्रहस्पति के सद्रश भी
कौन पुरुष समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं| अथवा
प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है
मगरमच्छों का समूह जिसमें ऐसे समुद्
र को भुजाओं के द्वारा तैरने के लिए
कौन समर्थ है अर्थात् कोई नहीं|
५.सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश
कतुं स्तवं विगत-शक्तिरपि प्रवृत्तः|
प्रीत्यात्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रं
नाभ्येति किं निज-शिशोः परिपालनार्थम् ||
अनुवाद 
हे मुनीश! तथापि-शक्ति रहित होता हुआ भी,
मैं- अल्पज्ञ, भक्तिवश, आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ| 
हरिणि, अपनी शक्ति का विचार न कर, 
प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिये, 
क्या सिंह के सामने नहीं जाती? अर्थात जाती हैं|
भक्तामर स्तोत्र 
६.अल्प-श्रुतं श्रुतंवतां परिहास-धाम
त्वद् भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् |
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति
तच्चाम्र-चारु-कलिका-निकरैक-हेतुः ||
अनुवाद 
विद्वानों की हँसी के पात्र, मुझ अल्पज्ञानी को
आपकी भक्ति ही बोलने को विवश करती हैं| 
बसन्त ऋतु में कोयल जो मधुर शब्द करती है 
उसमें निश्चय से आम्र कलिका ही एक मात्र कारण हैं|
७.त्वत्संस्तवेन भव-सन्तति-सन्निबद्धं
पापं क्षणात्क्षयमुपैति शरीरभाजाम् |
आक्रान्त-लोकमति-नीलमशेषमाशु
सूर्याशु-भिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ||
अनुवाद -
आपकी स्तुति से, प्राणियों के, 
अनेक जन्मों में बाँधे गये पाप कर्म
क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं जैसे सम्पूर्ण 
लोक में व्याप्त रात्री का अंधकार सूर्य की
किरणों से क्षणभर में छिन्न भिन्न हो जाता है|
८.मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेद-
मारभ्यते तनु-धियापि तव प्रभावात् |
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी-दलेषु
मुक्ता-फलधुतिमुपैति ननूद-बिन्दुः ||
९. आस्तां तव स्तवनमस्त-समस्त-दोषं
त्वत्सड्कतथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति|
दूरे सहस्र किरणः कुरुते प्रभैव
पद्माकरेषु जलजानि विकासभांजी ||अनुवाद -
 सम्पूर्ण दोषों से रहित आपका स्तवन तो दूर, 
आपकी पवित्र कथा भी प्राणियों के पापों का नाश कर देती है|
जैसे, सूर्य तो दूर, उसकी प्रभा ही सरोवर में कमलों को विकसित कर देती है|
१०.नात्यद् भुतं भुवन-भूषण भूत-नाथ!
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः|
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ||
 हे जगत् के भूषण! हे प्राणियों के नाथ! 
सत्यगुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले
पुरुष पृथ्वी पर यदि आपके समान हो जाते हैं
तो इसमें अधिक आश्चर्य नहीं है| क्योंकि
उस स्वामी से क्या प्रयोजन, जो इस लोक में
अपने अधीन पुरुष को सम्पत्ति के द्वारा अपने समान नहीं कर लेता |
११.द्रष्ट् वा भवन्तमनिमेष-विलोकनीयं
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः|
पीत्वा पयः शशिकर-द्युति-दुग्ध-सिन्धोः
क्षारं जलं जल-निधे रसितुं कः इच्छेत् ||
अनुवाद 
जिसने तुम्हे निहारा जीवन-भर, वह क्यों इधर-उधर झांकेंगा ?
क्षीर नीर को पीने वाला, क्षार नीर को क्यों चाहेगा ?
१२.यैः शान्त-राग-रुचिभिः परमाणुभिस्त्व्
निर्मापितस्त्रिभुवनैक-ललाम-भूत|
तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां
यत्ते समानमपरं न हि रुपमस्ति ||
अनुवाद -
वे परमाणु उतने ही थे, 
जिनसे तेरी देह बनी है |
इसलिए सारी धरती पर,
तुझ-सी सुन्दर देह नहीं है |
१३.वक्त्रं क्व ते सुरनरोरगनेत्रहारि
नि:शेष-निर्जित-जगत-त्रितयोपमानम 
बिम्बं कलंक मलिनं क्व निशाकरस्य 
यद् वासरे भवति पाण्डुपलाश कल्पम ||
अनुवाद -
 हे प्रभो! सम्पूर्ण रुप से तीनों जगत् की उपमाओं का विजेता,
देव मनुष्य तथा धरणेन्द्र के नेत्रों को हरने वाला कहां आपका मुख? 
और कलंक से मलिन, चन्द्रमा का वह मण्डल कहां? 
जो दिन में पलाश (ढाक) के पत्ते के समान फीका पड़ जाता !
१४.सम्पूर्णमण्डल- शशांककलाकलाप-
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयन्ति |
ये संश्रि तास्त्रिजगदीश्वर- नाथमेकं 
कस्तान निवारयति संचरतो यथेष्टम् ||
पूर्ण चंद्र की तरह सुशोभित, गुण तेरे व्यापक त्रिभुवन में |
कौन रोक सकता है उनकी, व्यापकता संसृती कण-कण में ||
१५.चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिर्नीतं 
मनागपि मनो न विकार-मार्गम |
कल्पान्तकाल-मरुता चलिताचालेन,
किं मंदराद्रिशिखरं चलितं कदाचित ||
विकृत रेखा खींच न पाई, मन में तेरे कभी मेनका |
झंझावात उखाड़े कुछ भी, मेरु-शिखर क्या हिला सका ? 
१६.निर्धूम-वर्तिरपवर्जित-तैल-पूरः
क्रत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटी-करोषि|
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ जगत्प्रकाशः ||
अनुवाद -
हे स्वामिन्! आप धूम तथा बाती से रहित, 
तेल के प्रवाह के बिना भी इस सम्पूर्ण लोक को 
प्रकट करने वाले अपूर्व जगत् प्रकाशक दीपक हैं
जिसे पर्वतों को हिला देने वाली वायु भी कभी बुझा नहीं सकती !
१७.नास्तं कदाचिदुपयासि न राहु-गम्यः
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति|
नाम्भोधरोदर निरुद्ध-महा-प्रभावः
सूर्यातिशायि-महिमासि मुनीन्द्र! लोके ||
अनुवाद 
हे मुनीन्द्र! आप न तो कभी अस्त होते हैं 
न ही राहु के द्वारा ग्रसे जाते हैं और
न आपका महान तेज मेघ से तिरोहित होता है
आप एक साथ तीनों लोकों को शीघ्र ही प्रकाशित कर देते हैं
अतः आप सूर्य से भी अधिक महिमावन्त हैं |
१८.नित्योदयं दलित-मोह-महान्धकारं
गम्यं न राहु-वदनस्य न वारिदानाम्|
विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्पकान्ति
विद्योतयज्जगदपूर्व-शशांक-बिम्बम् ||
अनुवाद 
हमेशा उदित रहने वाला, मोहरुपी अंधकार को 
नष्ट करने वाला जिसे न तो राहु ग्रस सकता है,
न ही मेघ आच्छादित कर सकते हैं, अत्यधिक 
कान्तिमान, जगत को प्रकाशित करने वाला
आपका मुखकमल रुप अपूर्व चन्द्रमण्डल शोभित होता है |
१९.किं शर्वरीषु शशिनाऽह्रि विवस्वता वा
युष्मन्मुखेन्दु-दलितेषु तमःसु नाथ|
निष्पन्न-शालि-वन-शालिनि जीव-लोके
कार्यं कियज्जलधरैर्जल-भार-नम्रैः ||
अनुवाद - 
हे स्वामिन्! जब अंधकार आपके मुख रुपी चन्द्रमा
के द्वारा नष्ट हो जाता है तो रात्रि में चन्द्रमा से एवं
दिन में सूर्य से क्या प्रयोजन? पके हुए धान्य के खेतों से
शोभायमान धरती तल पर पानी के भार से झुके
हुए मेघों से फिर क्या प्रयोजन |
२०.ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं
नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु |
तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्वं
नैवं तु काच-शकले किरणाकुलेऽपि 
 अनुवाद 
२०. अवकाश को प्राप्त ज्ञान जिस प्रकार आप 
में शोभित होता है वैसा विष्णु महेश आदि
देवों में नहीं | कान्तिमान मणियों में, 
तेज जैसे महत्व को प्राप्त होता है वैसे
किरणों से व्याप्त भी काँच के टुकड़े में नहीं होता | 
२१.मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा
दृष्टेषु येषु ह्रदयं त्वयि तोषमेति|
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः
कश्चिन्मनो हरित नाथ!भवान्तरेऽपि ||  
अनुवाद  
हे स्वामिन्| देखे गये विष्णु महादेव ही
मैं उत्तम मानता हूँ, जिन्हें देख लेने पर मन आपमें
सन्तोष को प्राप्त करता है| किन्तु आपको देखने से क्या लाभ? 
जिससे कि प्रथ्वी पर कोई दूसरा देव जन्मान्तर में भी चित्त को नहीं हर पाता |
२२.स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता|
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र-रश्मिं
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम् ||
अनुवाद  
सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं, 
परन्तु आप जैसे पुत्र को दूसरी माँ उत्पन्न नहीं कर सकी|
नक्षत्रों को सभी दिशायें धारण करती हैं परन्तु 
कान्तिमान् किरण समूह से युक्त सूर्य को पूर्व दिशा ही जन्म देती हैं |
२३.त्वामामनन्ति मुनयः परमं पुमांस-
मादित्य-वर्णममलं तमसः पुरस्तात्|
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्युं
नान्यः शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र पन्थाः ||
अनुवाद  
हे मुनीन्द्र! तपस्वीजन आपको सूर्य की तरह तेजस्वी निर्मल 
और मोहान्धकार से परे रहने वाले परम पुरुष मानते हैं | 
वे आपको ही अच्छी तरह से प्राप्त कर म्रत्यु को जीतते हैं | 
इसके सिवाय मोक्षपद का दूसरा अच्छा रास्ता नहीं है |
२४.त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यामाद्यं
ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनगंकेतुम्|
योगीश्वरं विदितयोगनेकमेकं
ज्ञानस्वरुपममलं प्रवदन्ति सन्तः ||
अनुवाद  
सज्जन पुरुष आपको शाश्वत, विभु, अचिन्त्य, असंख्य,
आद्य, ब्रह्मा, ईश्वर, अनन्त, अनंगकेतु, योगीश्वर, विदितयोग, 
अनेक, एक ज्ञानस्वरुप और अमल कहते हैं |
२५.बुद्घस्त्वमेव विबुधार्चित-बुध्दि-बोधात्
त्वं शकंरोऽसि भुवन-त्रय-शकंरत्वात्|
धातासि धीर! शिव-मार्ग-विधेर्विधानात्
व्यक्तं त्वमेव भगवन्तुरुषोत्तमोऽसि ||
अनुवाद  
देव अथवा विद्वानों के द्वारा पूजित ज्ञान वाले होने से
आप ही बुद्ध हैं| तीनों लोकों में शान्ति करने के कारण 
आप ही शंकर हैं| हे धीर! मोक्षमार्ग की विधि के करने वाले होने से
आप ही ब्रह्मा हैं| और हे स्वामिन्!
आप ही स्पष्ट रुप से मनुष्यों में उत्तम अथवा नारायण हैं |
२६.तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ!
तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय|
तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि-शोषणाय ||
अनुवाद  
हे स्वामिन्! तीनों लोकों के दुःख को हरने वाले 
आपको नमस्कार हो, प्रथ्वीतल के निर्मल आभुषण स्वरुप
आपको नमस्कार हो, तीनों जगत् के परमेश्वर 
आपको नमस्कार हो और संसार समुन्द्र को 
सुखा देने वाले आपको नमस्कार हो| 
 २७.को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषै-
स्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश|
दोषैरुपात्तविविधाशश्रय-जात-गर्वैः
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ||
अनुवाद  
हे मुनीश! अन्यत्र स्थान न मिलने के कारण
समस्त गुणों ने यदि आपका आश्रय लिया हो 
तो तथा अन्यत्र अनेक आधारों को प्राप्त होने से 
अहंकार को प्राप्त दोषों ने कभी स्वप्न में भी 
आपको न देखा हो तो इसमें क्या आश्चर्य? 
 २८.उच्चैरशोक-तरु-संश्रितमुन्मयूख-
माभाति रुपममलं भवतो नितान्तम्|
स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त-तमो-वितानं
बिम्बं रवेरिव पयोधर-पाश्र्र्ववर्ति ||
अनुवाद 
ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे स्थित, उन्नत किरणों वाला, 
आपका उज्ज्वल रुप जो स्पष्ट रुप से शोभायमान किरणों से युक्त है,
अंधकार समूह के नाशक, मेघों के निकट स्थित
सूर्य बिम्ब की तरह अत्यन्त शोभित होता है |
 २९.सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे
विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम्|
बिम्बं वियद् विलसदंशुलता-वितानं
तुगोंदयाद्रिशिरसीव सहस्र-रश्मेः ||
अनुवाद  
मणियों की किरण-ज्योति से सुशोभित सिंहासन पर,
आपका सुवर्ण कि तरह उज्ज्वल शरीर, उदयाचल के
उच्च शिखर पर आकाश में शोभित, किरण रुप लताओं के
समूह वाले सूर्य मण्डल की तरह शोभायमान हो रहा है|
 ३०.कुन्दावदात-चल-चामर-चारु-शोभं
विभ्राजते तव वपुः कलधोत-कान्तम्|
उद्यच्छशागं-शुचि-निर्झर-वारि-धार
मुच्चैस्तटं सुरगिरेरिव शांतकोम्भम ||
अनुवाद  
कुन्द के पुष्प के समान धवल चँवरों के द्वारा सुन्दर है
शोभा जिसकी, ऐसा आपका स्वर्ण के समान सुन्दर शरीर, 
सुमेरुपर्वत, जिस पर चन्द्रमा के समान उज्ज्वल झरने के जल
की धारा बह रही है, के स्वर्ण निर्मित ऊँचे तट की
तरह शोभायमान हो रहा है|
३१.छत्र-त्रयं तव विभाति शशाक-कान्त-मुच्चै
स्थितं स्थगित-भानुकर-प्रतापम्|
मुक्ता-फल-प्रकर-जालविवृद्धशोभंप्रख्यापयत
त्रिजगत: परमेश्वरत्वम् ||
अनुवाद
 चन्द्रमा के समान सुन्दर, सूर्य की किरणों केसन्ताप को रोकने वाले, तथा मोतियों के समूहों से बढ़ती हुई शोभा को धारण करने वाले, आपके ऊपर स्थित तीन छत्र, मानो आपके तीन लोक केस्वामित्व को प्रकट करते हुए शोभित हो रहे हैं|
३२.उन्निद्र-हेम-नव-पंकज-पुञ्ज-कान्तीपर्युल्लसन्नख-
मयूख-शिखाभिरामौ|
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र
धत्तःपद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ||
अनुवाद 
पुष्पित नव स्वर्ण कमलों के समान शोभायमान नखों कीकिरण प्रभा
से सुन्दर आपके चरण जहाँ पड़ते हैंवहाँ देव गण स्वर्ण कमल रच देते हैं|
३३.इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्रधर्मोपदेशन-
विधौ न तथा परस्य|
यादृक प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारातादृक्कुतो
ग्रह-गणस्य विकाशिनोऽपि ||
अनुवाद
 हे जिनेन्द्र! इस प्रकार धर्मोपदेश के कार्य में जैसा आपका ऐश्वर्य था
वैसा अन्य किसी का नही हुआ अंधकार को नष्ट करने वाली जैसी प्रभा सूर्य की होती है
 वैसी अन्य प्रकाशमान भी ग्रहों की कैसे हो सकती है?
३४.शच्योतन् मदाविल-विलोल-कपोल-मूल
-मत्त-भ्रमद्-भ्रमर-नाद-विवृद्ध-कोपम् |
एरावताभमिभमुद्धतमापतन्तंदृष्ट्वा
भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ||
अनुवाद 
आपके आश्रित मनुष्यों को, झरते हुए मद जल
सेजिसके गण्डस्थल मलीन, कलुषित तथा चंचल हो रहे है
और उन पर उन्मत्त होकर मंडराते हुए काले रंग के भौरे
अपने गुजंन से क्रोध बढा़ रहे हों
ऐसे ऐरावत की तरह उद्दण्ड,सामने आते हुए हाथी को देखकर भी भय नहीं होता|
३५.भिन्नेभ-कुम्भ-गलदुज्ज्वल-शोणिताक्त-
मुक्ताफल-प्रकर-भूषित-भूमि-भागः|
बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिऽपोपिनाक्रामति
क्रम-युगाचल-संश्रितं ते ||
अनुवाद 
सिंह, जिसने हाथी का गण्डस्थल विदीर्ण कर,
गिरते हुए उज्ज्वल तथा रक्तमिश्रित गजमुक्ताओं सेपृथ्वी तल को विभूषित कर दिया है
तथा जो छलांग मारनेके लिये तैयार है
वह भी अपने पैरों के पास आये हुए
 ऐसे पुरुष पर आक्रमण नहीं करता
जिसने आपकेचरण युगल रुप पर्वत का आश्रय ले रखा है|
३६.कल्पान्त-काल-पवनोद्धत-वह्रि-
कल्पंदावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिगंम्|
विश्वं जिघित्सुमिव संमुखमापतन्तंत्वन्नाम-
कीर्तन-जलं शमयत्यशेषम् ||
अनुवाद 
आपके नाम यशोगानरुपी जल, प्रलयकाल की वायु से उद्धत,
प्रचण्ड अग्नि के समान प्रज्वलित, उज्ज्वल चिनगारियों से युक्त,
संसार को भक्षण करने की इच्छा रखने वाले की तरह सामने आती हुई
वन की अग्नि को पूर्ण रुप से बुझा देता है|
३७.रक्तेक्षणं समद-कोकिल-कण्ठ
-नीलंक्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम्|
आक्रामति क्रम-युगेन निरस्त-शकं-
स्त्वन्नाम-नाग-दमनी ह्रदि यस्य पुंसः || 
अनुवाद 
जिस पुरुष के ह्रदय में नामरुपी-नागदौन नामक औषध मौजूद है,
वह पुरुष लाल लाल आँखो वाले,
मदयुक्त कोयल के कण्ठ की तरह काले,क्रोध से उद्धत और ऊपर को फण उठाये हुए,
सामने आते हुएसर्प को निश्शंक होकर दोनों पैरो से लाँघ जाता है|
३८.वल्गत्तुरंग-गज-गर्जित-भीमनाद-माजौ
बलं बलवतामपि भूपतीनाम्|
उद्दददिवाकर-मयूख-शिखापविद्धंत्वत्कीर्तनात्तम
इवाशु भिदामुपैति|
अनुवाद 
आपके यशोगान से युद्धक्षेत्र में उछलते हुए घोडे़
और हाथियों की गर्जना से उत्पन भयंकर कोलाहल से युक्त
पराक्रमी राजाओं की भी सेना, उगते हुए सूर्य किरणों की शिखा
से वेधे गये अंधकार की तरह शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाती है|
३९.कुन्ताग्र-भिन्न-गज-शोणित-
वारिवाह-वेगावतार - तरणातुर - योध - भीमे|
युद्धे जयं विजित-दुर्जय-जेय-पक्षार
 स्तवत्पाद-पंकज-वनाश्रयिणो लभन्ते |
अनुवाद 
हे भगवन् आपके चरण कमलरुप वन का सहारा लेने वाले पुरुष, 
भालों की नोकों से छेद गये हाथियों के रक्त रुप जल प्रवाह में पडे़ हुए,
तथा उसे तैरने के लिये आतुर हुए योद्धाओं से भयानक युद्ध में, दुर्जय शत्रु पक्ष को भी जीत लेते हैं|
४०.अम्भोनिधौक्षुभित-भीषण-नक्र-चक्र
-पाठीन-पीठ-भय-दोल्वण-वाडवाग्नौ|
रंगत्तरंग-शिखर-स्थित-यान-पात्रा-
स्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति |
अनुवाद 
क्षोभ को प्राप्त भयंकर मगरमच्छों के समूह
और मछलियों के द्वारा भयभीत करने वाले
दावानल से युक्तसमुद्र में विकराल लहरों के शिखर पर स्थित है
जहाज जिनका,ऐसे मनुष्य, आपके स्मरण मात्र से भय छोड़कर पार हो जाते हैं| 
४१.उद्-भूत -भीषण-जलोदर-भार-भुग्नाःशोच्यां
दशामुपगताश्च्युत-जीविताशाः|
त्वत्पाद-पंकज-रजोऽमृत-दिग्ध-देहामर्त्या
भवन्ति मकरध्वज-तुल्यरुपाः|
अनुवाद
 टूट चुकी जीने की आशा, हुआ जलोदर रोग भयंकर |
तव चरणों की लेकर रज वह, कामदेव-सा बनता सुन्दर ||
४२.आपाद-कण्ठमुरु-श्रंखल-वेष्टितांगा 
गाढं बृहन्निगड-कोटि-निधृष्ट-जंघाः|
त्वन्नाम-मन्त्रमनिशं मनुजाः
स्मरन्तःसद्यः स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति||
अनुवाद 
जिनका शरीर पैर से लेकर कण्ठ पर्यन्त बडी़-बडी़ सांकलों से जकडा़ हुआ है 
और विकट सघन बेड़ियों से जिनकी जंघायें अत्यन्त छिल गईं हैं
 ऐसे मनुष्य निरन्तर आपके नाममंत्र को स्मरण करते हुए शीघ्र ही बन्धन मुक्त हो जाते है|
४३.मत्तद्विपेन्द्र-मृगराज-दवानलाहि:-
संग्राम वारिधि-महोदर-बन्धनोत्थम्|
तस्याशु नाशमुपयाति भयं
भियेवयस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते|
अनुवाद 
जो बुद्धिमान मनुष्य आपके इस स्तवन को पढ़ता है 
उसका मत्त हाथी, सिंह, दवानल, युद्ध, समुद्र जलोदर रोग और बन्धन आदि से
उत्पन्न भय मानो डरकर शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है|
४४.स्तोत्रस्रजं तव जिनेन्द्र ! गुणैर्निबद्धांभक्त्या
मया रुचिर-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम्|
धत्ते जनो य इह कण्ठ-गतामजस्रंतं
'मानतुंगमवशा' समुपैति लक्ष्मीः|
अनुवाद
 हे जिनेन्द्र देव! इस जगत् में जो लोग मेरे द्वारा
भक्तिपूर्वक (ओज, प्रसाद, माधुर्य आदि) गुणों से रची गई 
नाना अक्षर रुप, रंग बिरंगे फूलों से युक्त आपकी स्तुति रुप माला को कंठाग्र करता है 
उस उन्नत सम्मान वाले पुरुष को अथवा आचार्य मानतुंग को स्वर्ग मोक्षादि की विभूति अवश्य प्राप्त होती है|
भक्तामर श्लोक से लाभ 
१. सर्व विघ्न विनाशक २. सकल रोग नाशक ३. सर्व सिद्धि प्रदायक ४. जंतु भय नाशक ५. लोचन कष्ट-निवारक ६. विद्या विकासक ७. उपद्रव निवारक ८. अनिष्ट उबारक ९. भय विनाशक १०. श्वान विष निवारक ११. वियुक्त व्यक्तिमेलापक १२. हस्तिमदमारक १३. लक्ष्मी प्रापक १४. आधी-व्याधि नाशक १५. सम्मान-प्रदायक १६. सर्व विजय दायक १७. सर्व रोग निवारक १८. बल निरोधक १९. पुष्ट शक्ति प्रभावक २०. संपत्ति सौभाग्यदायक २१. वशीकरण कर्ता२२. भूतपिशाच बाधा निरोधक २३. प्रेत बाधा निवारक २४. मस्तिष्क रोग निवारक २५. दृष्टि दोष निवारक २६. अर्धशिरपीड़ा निवारक २७. शत्रु स्तम्भक २८. सर्व मनोरथ पूरक २९. नेत्र पीड़ा निवारक ३०. शत्रु स्तम्भक ३१. राज सम्मान दायक ३२. लक्ष्मी लाभ दायक ३३. दुर्जन स्तम्भक ३४. हस्तिमद भंजक वैभव-वर्द्धक३५. सिंहशक्ति संहारक ३६. अग्नि प्रकोप शामक ३७. भुजंग भय निवारक ३८. युद्ध भय निवारक ३९. सर्व शान्ति दायक ४०. सर्व विपत्ति नाशक ४१. जलोदर रोग नाशक ४२. बंधन विमोचक ४३. अस्त्र-शस्त्र स्तम्भक ४४. सर्वसिद्धि दायक

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