Wednesday, July 25, 2012

मिथ्यात्व व् उसके भेद


मिथ्यात्व -  
महावीर भगवान् ने बंधन किसे कहा है ?
और कैसा ज्ञान प्राप्त करने से बंधन का नाश हो सकता है ?
सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि
१. बंधन क्या है ?और
२.बंधन से मुक्त होने का उपाय क्या है ?
बंधन का यथार्थ स्वरुप समझे बिना उससे मुक्ति नहीं प्राप्त की जा सकती |
बंधन का प्रधान कारण मिथ्यात्व है |
मिथ्यात्व से ग्रस्त जीव न तो अपने वास्तविक स्वरुप को समझ पाता है, न बंधन को समझ पाता है
और
न उससे छुटकारा पाने के उपायों को ही समझता है |
अतः सबसे पहले मिथ्यात्व को समझना और उसका त्याग करना आवश्यक है |
१. अनित्य को नित्य मानना २. अशुद्ध को शुद्ध मानना ३. दुःख को सुख और ४. आत्मा को अनात्मा मानना ही मिथ्यात्व है | मिथ्यात्व ३ प्रकार का है - १. अनादि अनंत - जिस मिथ्यात्व की आदि नहीं है और अन्त नहीं है | अभव्य जीवों को यह मिथ्यात्व होता है | अनंत भव्य जीव भी ऐसे हैं, जो अनंतानंत काल से निगोद में पड़े हुए हैं | वे एकेन्द्रिय पर्याय को छोड़कर द्वीन्द्रिय पर्याय भी प्राप्त नहीं कर सके हैं और भविष्य में भी नहीं प्राप्त कर सकेंगे | २. अनादि सपर्यवसित -अनादिकाल से मिथ्यात्वी होने के कारण जिन जीवों के मिथ्यात्व की आदि तो नहीं है, पर सम्यक्त्व प्राप्त करने के योग्य होने के कारण जो मिथ्यात्व का अन्त कर डालते हैं | ३. सादि सपर्यवसित - जो मिथ्यात्व एक बार नष्ट जाता है, किन्तु फिर उत्पन्न हो जाता है और यथाकाल फिर नष्ट हो जायेगा |

मिथ्यात्व के स्वरुप को समझने के लिए उसके २५ भेदों को समझ लेना आवश्यक है |
१. आभिग्राहिक मिथ्यात्व -
कुछ लोग समझते हैं कि जो बात हमारे ध्यान में आये, वही सच्ची और बाकी सब झूठी |
ऐसे व्यक्ति यह सोचकर कि हमारी श्रद्धा भंग न हो जाए - सदगुरु का समागम भी नहीं करते |
जिनेंश्वर भगवान् की वाणी का श्रवण-मनन भी नहीं करते, सत्य-असत्य का निर्णय भी नहीं करते |
वे हठाग्रही बने रहकर अपने माने हुए और रूढि से चले आने वाले मार्ग पर ही चलते रहते हैं |
अगर उन्हें कोई सत्य धर्म को समझाना चाहे तो वे कहते हैं - " हम अपने बाप-दादाओं का धर्म कैसे छोड़ सकते हैं |" वास्तव में वे जैसे बाप-दादाओं की धर्म परंपरा से चिपटे रहते हैं,
वैसे संसार की दूसरी बातों से नहीं चिपके रहते |
बाप-दादा निर्धन हों, तो क्या आपको धन प्राप्त करने का उद्योग नहीं करना चाहिए ?
और
यदि अनायास धन प्राप्त हो जाए तो क्या फेंक देना चाहिए ?
सिर्फ धर्म के विषय में नाहक ही बाप-दादाओं को बीच में ले आते हैं और मिथ्या मत का त्याग नहीं करते |
कुछ लोग कहते हैं - हमारे धर्म में बड़े-बड़े विद्वान हैं, धनवान हैं और सत्तावान हैं | वे सभी क्या मूर्ख हैं ? परन्तु सच बात तो यह है कि मोहनीय कर्म की शक्ति बहुत प्रबल है | इस के प्रभाव के कारण सच्चे धर्म की परीक्षा नहीं हो सकती | आत्मा अनादिकाल से पाप से परिचित है, इस कारण बिना सिखाये पाप सीख जाता है | जन्मते ही बच्चे को रोना कौन सिखाता है ? जन्मते ही बच्चे को कौन दूध पीना सिखाता है ? अनुभव के कारण बिना सिखाये ऎसी बातें याद आ जाती है और इनका आचरण करने लगता है | ऐसा समझकर आग्रही न बनकर और विद्वान कहलाने वालों की तरफ न देखकर अपनी आत्मा के कल्याण-अकल्याण की ओर दृष्टि रखकर सत्य धर्म में प्रवृत्त होना चाहिए |
२. अनाभिग्राहिक मिथ्यात्व - कुछ लोग हठाग्रही तो नहीं होते, पर उनमें धर्म-अधर्म, निजगुण-पर गुण, सत्य-असत्य को परखने की बुद्धि ही नहीं होती | उनमें जन्म से एक प्रकार की मूढ़ता होती है, जिसके कारण वे सत्य धर्म और पाखण्ड धर्म का निर्णय नहीं कर सकते | जैसे - हलुवा आदि मधुर पदार्थों में कूड़छी घूमती तो है, मगर अपने जड़ स्वभाव के कारण स्वाद की परीक्षा नहीं कर सकती | उसी प्रकार से ये प्राणी बड़ी उम्र के हो जाने पर भी धर्म के सम्बन्ध में यही उत्तर देते हैं - " हमें पक्षपात में पड़ने की क्या आवश्यकता है ? किसी के धर्म को क्यों बुरा कहना चाहिए ? कौन जाने कौन-सा धर्म सच्चा है और कौन-सा धर्म झूठा है ? हम तो सभी देवों को और गुरुओं को पूजेंगे, वंदना करेंगे, इसी से हमारा उद्धार हो जाएगा |"
३. आभिनिवेशिक मिथ्यात्व - कुछ व्यक्ति अपनी धर्म मान्यता और कल्पनाओं का मिथ्यापन समझ लेते हैं, किन्तु मान-अभिमान के कारण अभिनिवेश का त्याग नहीं करते | कोई संत उन्हें समझाते हैं, तो कुतर्क करते हैं | क्रोधित हो जाते हैं | इस प्रकार अनंत संसार बढ़ा लेते हैं | अपनी आत्मा का हित चाहने वाले प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि मिथ्या मान्यता का त्याग करे और जो मान्यता सच्ची लगे उसे स्वीकार करे |
४. सांशयिक मिथ्यात्व--कुछ श्रावक ऐसे भी होते हैं,जो श्रीवीतराग-वाणी की कोई-कोई गहन बात,बुद्धि की कमी के कारण या अन्य धर्म वालों से अथवा आधुनिक पश्चिमी मान्यताओं से विरुद्ध मालूम पड़ने से जैन मत पर शंका करने लगते हैं |
वे कहते हैं -- कैसे मान लिया जाए कि यह बात सच्ची है ?या तो भगवान ने मिथ्या प्ररुपणा की हैया आचार्यों ने मिथ्या लिखा है !
उनका मन ऐसे डांवाडोल हो जाता है |वे यह नहीं सोचते कि वीतराग मिथ्या प्ररुपणा किसलिए करेंगे ?अतएव शास्त्र की कोई बात अगर समझ में न आवे तो विचारशील पुरुष को अपनी बुद्धि की मंदता समझनी चाहिए,किन्तु तीर्थंकर भगवान या आचार्यों का तनिक भी दोष नहीं समझना चाहिए |
समुद्र का सारा पानी लोटे में नहीं समा सकताउसी प्रकार अनंत ज्ञानी प्रभु के वचन अल्पज्ञ और छद्मस्थकी समझ में पूरी तरह कैसे आ सकते है ?इस प्रकार विचार करके सांशयिक मिथ्यात्व का त्याग करना चाहिए |


५. अनाभोग मिथ्यात्व -
अनजान में, अज्ञान के कारण अथवा भोलेपन के कारण अनाभोग मिथ्यात्व लगता है |
यह मिथ्यात्व एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय और बहुत से संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों को लगता है |
उपर्युक्त चार मिथ्यात्व वाले जीवों की अपेक्षा अनाभोग मिथ्यात्व वाले जीव अधिक हैं |
६. लौकिक मिथ्यात्व - ९
जैन मत के अलावा किसी अन्य मत को मानना,
लोकरुढियों में धर्म समझना लौकिक मिथ्यात्व कहलाता है |
इसके ३ भेद हैं --
१. देवगत लौकिक मिथ्यात्व
२. गुरुगत लौकिक मिथ्यात्व
३. धर्मगत लौकिक मिथ्यात्व
देवगत लौकिक मिथ्यात्व -
सम्पूर्ण ज्ञान और परिपूर्ण वीतरागता सच्चे देव के लक्षण हैं |
यह लक्षण जिनमें न् पाए जाएं;
उन देवों को देव मानना देवगत मिथ्यात्व है |
इन देवों को लौकिक देव मान सकते हैं |
गुरुगत लौकिक मिथ्यात्व -
गुरु ( साधू ) का नाम धराया पर गुरु के लक्षण-गुण जिन्होंने प्राप्त नहीं किए,
ऐसे जोगी, सन्यासी, फ़कीर, बाबा, साईं आदि जो हिंसा करते हैं,
रात्रि भोजन करते हैं, गांजा, अफीम, तमाखू आदि पीने की धुन में मस्त रहते हैं |
तिलक, माला, वस्त्र, आभूषण आदि से शरीर का श्रृंगार करते हैं |
रंग-बिरंगे वस्त्र धारण करते हैं, वाहन पर बैठते हैं, यहां तक कि मांस-मदिरा का भी सेवन करते हैं |
अनेक प्रकार के पाखण्ड करके पेट भराई करते हैं |
ऐसे गुरु को मानना-पूजना गुरुगत लौकिक मिथ्यात्व है |
शास्त्रों में ३६३ प्रकार के पाखण्ड-मत बतलाये गए हैं |
उनका स्वरुप समझ लेने से भली-भांति समझ में आ जाएगा |
७. लोकोत्तर मिथ्यात्व -
इसके ३ भेद हैं -
१. लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व
२. लोकोत्तर गुरुगत मिथ्यात्व
३. लोकोत्तर धर्मगत मिथ्यात्व
लोकोत्तर देवगत मिथ्यात्व -
जो तीर्थंकर कहलाता हो, किन्तु जिसमें तीर्थंकर के लेश मात्र भी गुण न् हों, जो १८ दोषों से भरा हुआ हो, ऐसे पुरुष को तीर्थंकर ( देव ) मानना |
लोकोत्तर गुरुगत मिथ्यात्व -
जैन साधू का नाम और वेष धारण करनेवाले,
किन्तु साधुपन के गुणों से रहित साधू को धर्मगुरु मानना |
लोकोत्तर धर्मगत मिथ्यात्व -
जैन धर्म भव-भव में लोकोत्तर कल्याणकारी है |
इस धर्म का सेवन करने से निराबाध और अक्षय मोक्ष-सुख की प्राप्ति होती है |
फिर भी इस सुख की उपेक्षा करके इस लोक सम्बन्धी सुख प्राप्त करने के लिए
धर्म का आचरण करना |
८. कुप्रावचनिक मिथ्यात्व -
इसके भी ३ भेद हैं -
देवगत, गुरुगत, धर्मगत |
देवगत - हरि, हर, ब्रह्मा आदि अन्य मत के देवों को मोक्ष प्राप्त करने के लिए मानना-पूजना |
गुरुगत - बाबा, जोगी आदि को सच्चा गुरु मानकर मोक्ष प्राप्ति के लिए उनकी सेवा, भक्ति, पूजा, श्लाघा करना |
धर्मगत - अन्य मत की संध्या, स्नान, होम, जप आदि क्रियाओं को मोक्ष प्राप्ति की इच्छा से अंगीकार करना |
 ९. जिनवाणी से न्यून प्ररूपणा-मिथ्यात्व -
कोई-कोई मानते है कि आत्मा तिल या सरसों के बराबर है |
कोई अंगूठा के बराबर कहते हैं |
यह सब प्ररूपणा न्यून (ओछी) प्ररूपणा है |
अपने विचार से मेल न् खाने वाले शास्त्र-वचनों को उड़ा देना,
पलट देना, या उसका मनमाना अर्थ करना,
यह सब भी मिथ्यात्व में शामिल है |
१०. जिनवाणी से अधिक प्ररूपणा-मिथ्यात्व -
श्री वीतराग भगवान द्वारा शास्त्र से अधिक प्ररूपणा करना भी मिथ्यात्व है |
११. जिनवाणी से विपरीत-प्ररूपणा-मिथ्यात्व -
केवलज्ञानी वीतराग भगवान द्वारा प्रणीत शास्त्र से विपरीत प्ररूपणा करना विपरीत मिथ्यात्व है |
१२. धर्म को अधर्म श्रद्धना-मिथ्यात्व -
वीतरागप्रभू ने जो धर्म बताया है - वही सत्य है |
१३. अधर्म को धर्म मानना-मिथ्यात्व -
धर्म के लक्षण से जो विपरीत है, वह अधर्म है |
उसे धर्म समझना मिथ्यात्व है |
१४. साधू को असाधु मानना-मिथ्यात्व -
शास्त्र में जो गुण साधुओं के बताए हैं,
उन गुणों से युक्त साधुओं को असाधु मानना मिथ्यात्व है |
१५. असाधु को साधू मानना-मिथ्यात्व -
साधू के गुणों से रहित कोरे भेषधारक, पापों का सेवन करनेवाले, कराने वाले और
अनुमोदना करनेवाले, निंदक, लालची व्यक्तियों को साधू मानना मिथ्यात्व है |
१६. जीव को अजीव श्रद्धना-मिथ्यात्व -
शास्त्रों में जीव के जो लक्षण बताएं हैं उनसे युक्त जीवों को जीव न मानना मिथ्यात्व है |
१७. अजीव को जीव श्रद्धना-मिथ्यात्व -
यह जगत जड़ और चेतन दो तत्वों से युक्त हैं,
जड़ को जीव समझना भी मिथ्यात्व ही है |
१८. सन्मार्ग को उन्मार्ग श्रद्धना-मिथ्यात्व -
जो मुक्ति के मार्ग हैं, उन्हें कर्म-बंध का, संसार में परिभ्रमण का मार्ग कहना मिथ्यात्व है |
१९. उन्मार्ग को सन्मार्ग श्रद्धना-मिथ्यात्व -
जिस कार्य में हिंसा हो उसको धर्म मानना भी मिथ्यात्व है |
२०. रुपी को अरूपी श्रद्धना-मिथ्यात्व -
वायुकाय आदि कितने ही रुपी पदार्थ हैं, किन्तु सूक्ष्म होने से दृष्टिगोचर नहीं होते |
इस कारण उन्हें अरूपी कहना मिथ्यात्व है |
२१. अरूपी को रुपी श्रद्धना-मिथ्यात्व -
सिद्ध भगवान आदि अरूपी द्रव्य के गुणों से युक्त हैं, उन्हें रुपी मानना इत्यादि प्रकार से अरूपी को रुपी कहना मिथ्यात्व है |
२२. अविनय मिथ्यात्व -
श्री जिनेन्द्र भगवान के, वचनों को उत्थापना, उनकी आज्ञा का उल्लंघन करना, तपस्वी, वैरागी, साधू-साध्वी, श्रावक, श्राविका आदि उत्तम पुरुषों की निंदा करना, कृतघ्न होना,
अविनय मिथ्यात्व है |
२३. आशातना मिथ्यात्व -
आशातना मिथ्यात्व के ३३ भेद हैं |
जैसे - अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, साधू, साध्वी, श्रावक, श्राविका आदि की आशातना करना |
२४. अक्रिया मिथ्यात्व -
अक्रियावादी कहता है कि आत्मा को पुण्य-पाप की क्रिया नहीं लगती |
ऐसे व्यक्ति अक्रिया मिथ्यात्व की स्थापना करते हैं |
२५. अज्ञान मिथ्यात्व -
जिसकी आत्मा में मिथ्यात्व है, उसकी आत्मा में अज्ञान होता ही है |
मिथ्यात्व-मोहनीय के उदय से सब विपरीत ही लगता है |
अभी हूंडावसर्पिणी काल में मिथ्यात्व का जोर बढ़ा हुआ दिखाई देता है |

जिधर देखें, उधर मान-सम्मान की ही बीमारी लगी हुई है |
वाक्-आडम्बर की कला क्या प्राप्त हुई कि कुबुद्धि द्वारा, कुकल्पनाएं करके आप्त पुरुषों की निंदा की जाती है |
भोले लोग उनके माया जाल में या किसी प्रकार के लालच में फंस जाते हैं |
ऐसे लोग अज्ञान मिथ्यात्व फैलाते हैं |

अज्ञान के कारण मिथ्यात्व में फंसे हुए लोगों को देखकर श्रीजिनशासन के अनुयायियों को सावधान रहना चाहिए |
बड़े पुण्योदय से प्राप्त हुए सम्यक्त्व-रत्न को संभाल कर रखना चाहिए |
मिथ्यादृष्टि का समस्त ज्ञान अज्ञान ही होता है |

अज्ञानवादी ज्ञान की निंदा करके अज्ञान को श्रेष्ठ और हितकर बताते हैं |
भोले लोगों को ज्ञान से वंचित रखते हैं |
















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