Monday, July 30, 2012

संघ और हमारा दायित्व

संघ और हमारा दायित्व - १
व्यक्ति व्यक्ति है और संघ संघ है |
संघ का अपना महत्व होता है |
संघ-हित के सामने व्यक्ति-हित गौण होता है |
जो व्यक्ति संघ के प्रति श्रद्धाशील है,
वह वैयत्तिक आलोचना को फिर भी सहन कर सकता है,
पर संघ की आलोचना कभी नहीं सुन सकता |
संघ पर आक्षेओ-प्रक्षेप होते रहें और
संघ के सदस्य कहलानेवाले मूक भाव से सुनते रहें,
इसे मैं संघीय आस्था की कमी और दायित्वहीनता की बात मानता हूं |
कुछ लोगों का तर्क है कि
प्रतिवाद करने की हमारी नीति नहीं है |
आलोचना का प्रत्युत्तर देकर हम अपनी सहनशीलता को खोना नहीं चाहते |
मेरी दृष्टि में यथोचित प्रतिवाद असहनशीलता का द्दोतक नहीं है |
पर प्रतिवाद की क्षमता यदि न भी हो तो कम-से-कम असहयोग तो प्रदर्शित कर ही देना चाहिए |
एक व्यक्ति निंदा नहीं करता,
पर निंदा करनेवालों के पास बैठता है,
उन्हें सुनता है तो मैं उसे निंदक का सहायक मानता हूं |
अन्यथा वफादार श्रावक अपने संघ की निंदा सुनकर चुप कैसे रह सकता है ?
- गणाधिपति गुरुदेवश्री तुलसी
============================
संघ और हमारा दायित्व - २
आचार्य भिक्षु के समय चंदू और वीरां नाम की दो साध्वियां हुई हैं |
साधना के अयोग्य समझकर आचार्य भिक्षु ने उन्हें संघ से अलग कर दिया |
आज तक का इतिहास बताता है कि 
संघ से अलग होनेवालों ने जी भरकर संघ की निंदा की है |
चंदू और वीरां भी इसका अपवाद कैसे बन सकती थी ?
उन्होंने पीपाड़ के बाज़ार में खड़े होकर संघ और आचार्य भिक्षु की आलोचना शुरू की |
सैकड़ों व्यक्ति इकट्ठे हो गए |
आचार्य भिक्षु को इस बात का पता चला कि
संघ की अवहेलना की जा रही है तो वे बैठे न रह सके |
वृक्ष की ओट में आकर खड़े हो गए और
चंदू, वीरां की आक्षेपात्मक बातों को सुनने लगे |
सुनते-सुनते के सहसा चबूतरे पर खड़े हुए और बोले --
" भाइयों ! मेरी एक बात सुनो |"
एकाएक स्वामीजी को देखकर सब सहम गए |
चंदू, वीरां के तो वहां पर पैर भी न टिक सके |
स्वामीजी ( आचार्य भिक्षु ) ने कहा -

" ये चंदू और वीरां दोनों जी भरकर निंदा कर रही हैं |
इस विषय में मुझे कुछ भी नहीं कहना है,
पर इन दोनों की प्रकृति से मैं आपको अवगत कर देना चाहता हूं |
स्वामीजी ( आचार्य भिक्षु ) ने कहा -
" ये चंदू और वीरां दोनों जी भरकर निंदा कर रही हैं |
इस विषय में मुझे कुछ भी नहीं कहना है,
पर इन दोनों की प्रकृति से मैं आपको अवगत कर देना चाहता हूं,
ताकि आप धोखे में न रहें |
चंदू और वीरां दोनों ही पहले स्थानकवासी सम्प्रदाय में दीक्षित थी |
एक बार इनकी गुरुणी पर चरित्र का लांछन लगाया गया |
इन्होने दावे के साथ कहा कि
हमारी गुरुणी पर यह आक्षेप सर्वथा निराधार है |
सूरज में कहीं रंज हो तो हमारी गुरुणी के चरित्र में दोष हो |
अपनी गुरुणी पर इतना विश्वास प्रकट करनेवाली चंदू, वीरां ने बाद में
अपनी गुरुणी को दोषी ठहराया और
लाल कपड़े पहनाकर उसे पुनः दीक्षा दी |
कुछ वर्षों बाद वहां से अलग होकर मेरे पास दीक्षित हुई |
मैंने इनकी प्रकृति सुधारने का बहुत प्रयत्न किया |
पर आखिर इनमें कोई परिवर्तन न देखकर मैंने इन्हें संघ से अलग कर दिया |"
स्वामीजी ( आचार्य भिक्षु ) ने ऐसा क्यों किया ?

- गणाधिपति गुरुदेवश्री तुलसी 
===================================
संघ और हमारा दायित्व - ३ 
स्वामीजी ( आचार्य भिक्षु ) ने ऐसा क्यों किया ?
इसलिए किया कि वे संघ के नेता थे |
एक अधिकारी होने के नाते ऐसा करना उनका कर्त्तव्य था |
वि.स. २०११ में जब मैं बंबई में था,
मैंने एक नीति निर्धारित की थी कि
गाली-गलौज व अश्लील आलोचना का उत्तर न हमने आज तक दिया है
और न ही देना है,
पर यदि उच्चस्तर की आलोचना होगी तो उसका हम उत्तर अवश्य देंगे |
अन्यथा सिद्धांत की सत्यता जनता तक नहीं पहुंच सकेगी |
मैंने अपनी इस नीति को क्रियान्वित किया |
- गणाधिपति गुरुदेवश्री तुलसी






No comments:

Post a Comment